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२८० ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-२, २४ मोहनीय कर्म सम्बन्धी उक्त दस बन्धस्थानोंमें प्रथम बन्धस्थानकी बाईस प्रकृतियोंमेंसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदको छोड़ देनेपर यह इक्कीस प्रकृतिरूप द्वितीय बन्धस्थान होता है ।।२३॥
सोलस कसाया इत्थिवेद पुरिसवेदो दोण्हं वेदाणमेकदरं हस्सशदि अरदि-सोग दोण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय दुगुंछा एदासिं एकवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव द्वाणं बंधमाणस्स ॥ २४ ॥
- अनन्तानुबन्धिचतुष्क आदि सोलह कषाय, स्रीवेद और पुरुषवेद इन दोनों वेदोमेंसे कोई एक वेद, हास्य-रति और अरति-शोक इन दो युगलों से कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा इन इक्कीस प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ २४ ॥
यहांपर उक्त दोनों वेद और हास्यादि दोनों युगलोंके विकल्पसे. ( २४२=४ ) चार भंग होते हैं।
तं सासणसम्मादिहिस्स ॥ २५ ॥ वह इक्कीसप्रकृतिक द्वितीय बन्धस्थान सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है ॥ २५ ॥
कारण यह कि दूसरे गुणस्थानसे आगे अनन्तानुबन्धिचतुष्कका और स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता है । इसका भी कारण यह है कि आगेके सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंमें अनन्तानुबन्धिचतुष्कका उदय सम्भव नहीं है।
तत्थ इमं सत्तरसहं ठाणं- अणंताणुबंधिकोह-माण-माया-लोभं इत्थिवेदं वज्ज ॥
मोहनीय कर्म सम्बधी उक्त दस बन्धस्थानोंमें द्वितीय बन्धस्थानकी इक्कीस प्रकृतियोंमेंसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और स्त्रीवेदको कम कर देनेपर यह सत्तरह प्रकृतिवाला तृतीय बन्धस्थान होता है ॥ २६ ॥
वारस कसाय पुरिसवेदो हस्स-रदि अरदि-सोग दोहं जुगलाणमेक्कदरं भय-दुगुंछा एदासिं सत्तरसण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ २७ ॥
अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध आदि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलों से कोई एक युगल', भय और जुगुप्सा; इन सत्तरह प्रकृतियोंके बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ।। २७ ।।
तं सम्मामिच्छादिहिस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा ॥ २८ ॥ वह सत्तरहप्रकृतिक तृतीय बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिके होता है।
चूंकि चतुर्थ गुणस्थानसे आगे अपने उदयके साथ बन्धको प्राप्त होनेवाले अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध होता नहीं है, इसलिए सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि ये दो गुणस्थानवर्ती ही इस सत्तरह प्रकृतियुक्त बन्धस्थानके स्वामी होते हैं।
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