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२७८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-२, १४ तत्थ इमं चदुण्हं हाणं-णिद्दा य पयला य वज्ज चक्खुदंसणारारणीयं अचवक्खुदंसणावरणीयं ओधिदंसणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं चेदि ॥ १४ ॥
दर्शनावरणीय कर्मके उक्त दूसरे स्थानकी प्रकृतियोंमेंसे निद्रा और प्रचलाको छोड़कर चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय इन चार प्रकृतियोंके समूहरूप उसका तीसरा बन्धस्थान होता है ॥ १४ ॥
एदासिं चदुण्हं पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ १५ ॥ इन चार प्रकृतियोंके बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ १५ ॥
प्राकृतमें चूंकि प्रथमाके अर्थमें षष्ठी और सप्तमी विभक्तियोंका प्रयोग देखा जाता है, अतएव इन सात प्रकृतियोंके बांधनेवाले जीवका एक ही स्थान होता है; ऐसा भी सूत्रका अर्थ हो सकता है।
तं संजदस्स ॥१६॥ वह चार प्रकृतिरूप तृतीय बन्धस्थान संयतके होता है ॥ १६ ॥
कारण यह है कि अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे द्वितीय भागसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत तक इन चारों प्रकृतियोंका बन्ध पाया जाता है।
वेदणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ सादावेदणीयं चेव असादावेदणीयं चेव ॥१७॥ वेदनीय कर्मकी दो प्रकृतियां हैं- साता वेदनीय और असाता वेदनीय ॥ १७ ॥ एदासिं दोण्हं पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ १८॥ इन दोनों प्रकृतियोंके बन्धक जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ १८ ॥
साता वेदनीय और असाता वेदनीय ये दोनों प्रकृतियां चूंकि परस्परविरुद्ध होनेसे एक साथ बंधती नहीं हैं तथा वे क्रमसे विशुद्धि और संक्लेशके निमित्तसे बन्धको प्राप्त होती हैं, अतएव इन दोनोंका यद्यपि एक स्थान सम्भव नहीं है, फिर भी यहां जो उनका एक स्थान निर्दिष्ट किया गया है वह इनके एक संख्यामें अवस्थित होनेसे ही निर्दिष्ट किया गया है। ऐसा अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए।
तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा सम्मामिच्छादिहिस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ १९ ॥
वह वेदनीय कर्मका बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ १९ ॥
सूत्रमें · संयत ' ऐसा कहनेपर यहां सयोगिकेवली तक संयतोंका ही ग्रहण करना चाहिए। कारण यह कि आगे अयोगिकेवलियोंके इस बन्धस्थानकी सम्भावना नहीं है।
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