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२७६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,९-२, ३ अब उन स्थानोंके स्वरूप और संख्याकी प्ररूपणा करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं
तं मिच्छादिट्ठिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स पा सम्मामिच्छादिद्विस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥३॥
वह प्रकृतिस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत सम्बन्धी है ॥ ३ ॥
वह स्थान अर्थात् प्रकृतिस्थान मिथ्यादृष्टिके, अथवा सासादनसम्यग्दृष्टिके, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टिके, अथवा असंयतसम्यग्दृष्टिके, अथवा संयतासंयतके अथवा संयतके होता है; क्योंकि, इनको छोड़कर अन्य कोई बन्धक नहीं हैं। यहां संयत शब्दसे प्रमत्तसंयतको आदि लेकर सयोगिकेवली तक आठ संयत गुणस्थानोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, संयतभावकी अपेक्षा उनमें कोई भेद नहीं है । यहां अयोगिकेवली गुणस्थानका ग्रहण नहीं किया गया है, क्योंकि, वहां बन्ध सम्भव नहीं है।
__णाणावरणीयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ- आभिणियोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं ओधिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि ॥ ४ ॥
ज्ञानावरणीय कर्मकी पांच प्रकृतियां हैं- आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनःपर्ययज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय ॥ ४ ॥
एदासिं पंचण्ठं पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ ५ ॥ इन पांचों प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ५ ॥
इन पांचों प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका 'पांच' संख्यासे उपलक्षित एक ही अवस्थाविशेषमें स्थान अर्थात् अवस्थान होता है। अभिप्राय यह है कि इन पांचों प्रकृतियोंका बन्ध एक परिणामविशेषसे एक साथ हुआ करता है ।
तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिद्विस्स वा सम्मामिच्छादिहिस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ ६ ॥
वह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ६ ॥
__ यहां संयत' कहनेपर सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत पर्यन्त संयत जीवोंका ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, इससे ऊपरके संयत जीवोंके उस ज्ञानावरणीय कर्मका बन्ध नहीं होता है।
दंसणावरणीयस्स कम्मस्स तिण्णि हाणाणि- णवण्हं छण्डं चदुण्डं द्वाणमिदि ॥७॥
दर्शनावरणीय कर्मके तीन बन्धस्थान हैं- नौ प्रकृतिरूप बन्धस्थान, छह प्रकृतिरूप बन्धस्थान और चार प्रकृतिरूप बन्धस्थान ॥ ७ ।।
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