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१,९-२, १३ ] जीवट्ठाण-चूलियाए ठाणसमुक्त्तिणं
[ २७७ अब गोके आगे नौ सूत्रोंके द्वारा इसीका स्पष्टीकरण किया जाता है
तत्थ इमं णवण्हं ठाणं-णिदाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा य पयला य चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ॥८॥
दर्शनावरणीयकर्मके उक्त तीन बन्धस्थानोंमें निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला; तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय; इन नौ प्रकृतियोंके समूहरूप यह प्रथम बन्धस्थान है ॥ ८ ॥
एदासिं णवण्हं पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ ९॥ इन नौ प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ९ ॥ तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा ॥ १० ॥ वह नौ प्रकृतिरूप प्रथम बन्धस्थान मिथ्यादृष्टिके और सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है ॥१०॥
अभिप्राय यह है कि इन नौ प्रकृतिरूप बन्धस्थानके स्वामी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि होते हैं।
तत्थ इमं छण्हं हाणं-णिहाणिद्दा-पयलापयला-थीणगिद्धीओ वज्ज णिद्दा य पयला य चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ॥११॥
दर्शनावरणीय कर्मके उपर्युक्त तीन बन्धस्थानोंमें निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन प्रकृतियोंको छोड़कर निद्रा और प्रचला तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय; इन छह प्रकृतियोंके समूहरूप यह दूसरा बन्धस्थान है ॥ ११ ॥
एदासिं छहं पयडीणं एक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ १२ ॥
इन छह प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका उनके बन्धयोग्य एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ १२ ॥
तं सम्मामिच्छादिद्विस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा संजदासंजदस्स या संजदस्स वा ॥१३॥
उस छह प्रकृतिरूप द्वितीय बन्धस्थानके स्वामी सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत होते हैं ॥ १३ ॥
यहां सूत्रमें ' संयत' ऐसा कहनेपर अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे प्रथम भागमें वर्तमान संयतों तकका ग्रहण करना चाहिए।
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