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१, ९-२, ३४ ]
जीवट्ठाण - चूलियाए ठाणसमुक्कित्तणं
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तत्थ इमं तेरसहं द्वाणं- अपच्चक्खाणावरणीयकोध-माण- माया-लोभं वज्ज ॥२९॥ मोहनीय कर्म सम्बन्धी उक्त दस बन्धस्थानोंमें तृतीय बन्धस्थानकी सत्तरह प्रकृतियोंमेंसे अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभको कम कर देनेपर यह तेरहप्रकृतिक चतुर्थ बन्धस्थान होता है ॥ २९ ॥
अट्ठ कसाया पुरिसवेदो हस्स-रदि अरदि-सोग दोहं जुगलाणमेकदरं भय- दुर्गुछा दासि तेरसहं पयडीणमेकम्हि चैव द्वाणं बंधमाणस्स ॥ ३० ॥
प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध आदि आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य- रति और अरति-शोक इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा; इन तेरह प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही भाव अवस्थान है ॥ ३० ॥
यहांपर हास्यादि दोनों युगलोंके विकल्पसे दो (२) भंग होते हैं ।
तं संजदासंजदस्स ॥ ३१ ॥
उक्त तेरहप्रकृतिक चतुर्थ बन्धस्थान संयतासंयतके होता है ॥ ३१ ॥
कारण यह कि पंचम गुणस्थानसे आगे अपने उदयकी सम्भावना न होने से वहां प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका बन्ध सम्भव नहीं है ।
तत्थ इमं णवण्हं ट्ठाणं- पच्चक्खाणावरणीयकोह - माण- माया - लोहं वज्ज ॥ ३२ ॥ मोहनीय कर्म सम्बन्धी उक्त दस बन्धस्थानोंमें चतुर्थ बन्धस्थानकी उपर्युक्त तेरह प्रकृतियोंमेंसे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ कषायोंको कम कर देने पर यह नौ प्रकृतियुक्त पांचवां बन्धस्थान होता है ॥ ३२ ॥
चदुसंजुला पुरिसवेदो हस्स -रदि अरदि-सोग दोहं जुगलाणमेकदरं भय - दुर्गुछा दासं व पडी मेक्कम्हि चेव द्वाणं बंधमाणस्स ।। ३३ ।।
चार संज्वलन कषाय, पुरुषवेद, हास्य- रति और अरति शोक इन दो युगलों में से कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा; इन नौ प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्था होता है ॥ ३३ ॥
छ. ३६
यहांपर हास्यादि दो युगलों के विकल्पसे दो (२) ही भंग होते हैं ।
तं संजदस्स ॥ ३४ ॥
वह नौप्रकृतिक पांचवां बन्धस्थान संयतके होता ॥ ३४ ॥
यहां 'संयत' कहने से प्रमत्तसंयतको आदि लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त संयतों का ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, उससे ऊपर छह नोकषायोंका बन्ध नहीं होता है । इसलिए आगे इस नौप्रकृतिक बन्धस्थान की सम्भावना नहीं है. ।
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