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जीवट्ठाण - चूलियाए ठाणसमुक्कित्तणं
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गोदस्स कम्मस दुवे पयडीओ उच्चागोदं चेव णिच्चागोदं चैव ॥ ४५ ॥ गोत्र कर्मकी दो प्रकृतियां हैं- उच्चगोत्र और नीचगोत्र ॥ ४५ ॥
१, ९-२, २ ]
जिस कर्मके उदयसे जीवोंके प्रशस्त गोत्र होता है वह उच्चगोत्र कर्म है, तथा जिसके उदयसे जीवोंके लोकनिन्द्य गोत्र होता है वह नीच गोत्र कहलाता है ।
अंतराइयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ - दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोगंतराइयं परिभोगंतराइयं वीरियंतराइयं चेदि ।। ४६ ।।
अन्तराय कर्मकी पांच प्रकृतियां हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ॥ ४६ ॥
जिस कर्मके उदयसे दान देते हुए जीवके विघ्न उपस्थित होता है वह दानान्तराय कर्म है । जिस कर्मके उदयसे लाभमें विघ्न होता है वह लाभान्तराय कर्म हैं । जिस कर्मके उदयसे भोगमें विघ्न होता है वह भोगान्तराय कर्म है । जिस कर्मके उदयसे परिभोगमें विघ्न होता है वह परिभोगान्तराय कर्म है । जो वस्तु एक बार भोगी जाती है उसका नाम भोग है । जैसे - ताम्बूल व भोजन-पान आदि । तथा जो वस्तु पुनः पुनः भोगी जाती है उसका नाम परिभोग है । जैसे- स्त्री, वस्त्र व आभूषण आदि । जिस कर्मके उदयसे वीर्यमें विघ्न होता है वह वीर्यान्तराय कर्म है ।
॥ प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामकी प्रथम चूलिका समाप्त हुई १ ॥
२. विदिया चूलिया
तो द्वाणसमुत्तिणं वण्णइस्समो ॥ १ ॥
अब आगे स्थान - समुत्कीर्तनका वर्णन करेंगे ॥ १ ॥
जिस संख्या अथवा अवस्थाविशेष में प्रकृतियां अवस्थित रहती हैं उसे 'स्थान' कहते हैं, समुत्कीर्तन, वर्णन और प्ररूपणा ये समानार्थक शब्द हैं । उक्त स्थानके समुत्कीर्तनको स्थानसमुत्कीर्तन कहते हैं । अभिप्राय यह है कि पहले प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक चूलिकामें जिन प्रकृतियोंका निर्देश मात्र किया गया है उन प्रकृतियोंका बन्ध क्या एक साथ होता है, अथवा क्रमसे होता है, इसका स्पष्टीकरण इस द्वितीय स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका में किया गया है ।
तं जहा ॥ २ ॥
वह स्थानसमुत्कीर्तन इस प्रकार है ॥ २ ॥
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