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छक्खंडागमे जीवाणं
[१, ९-१, ४१
जंतं आणुपुत्रीणामकम्मं तं चव्विहं - णिरयगदिपाओग्गाणुपुत्रीणामं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुत्रीणामं मणुसगदिपाओग्गाणुपुत्रीणामं देवगदिपाओग्गाणुपुव्वीणामं चेदि ।
जो वह आनुपूर्वी नामकर्म है वह चार प्रकारका है- नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म और देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म ॥ ४१ ॥
जिस कर्मके उदयसे नरकगतिको प्राप्त होकर विग्रहगतिमें वर्तमान जीवका नरकगतिके योग्य आकार होता है उसे नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म कहते हैं । इसी प्रकार शेष तीन आनुपूर्वी नामकर्मोंका भी स्वरूप समझना चाहिये ।
अगुरुअलहुअणामं उवघादणामं परघादणामं उस्सासणामं आदावणामं उज्जोवणाणामं अगुरु-अलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, परघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, आताप नामकर्म और उद्योत नामकर्म ॥ ४२ ॥
' नामकर्मकी ब्यालीस पिण्डप्रकृतियां ( अवान्तरभेद युक्त प्रकृतियां ) हैं ' यह निर्देश प्राधान्यपदकी अपेक्षा है, इस बातको बतलानेके लिये यहांपर इन प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है, क्योंकि, ये प्रकृतियां पिण्डप्रकृतियां नहीं हैं ।
जं तं विहायगइणामकम्मं तं दुविहं - पसत्थविहायगदी अप्पसत्थविहायगदी चेदि । जो वह विहायोगति नामकर्म है वह दो प्रकारका है- प्रशस्त विहायोगति और अप्रशस्त विहायोगति नामकर्म ॥ ४३ ॥
जिस कर्मके उदयसे जीवोंका सिंह, हाथी और वृषभ (बैल) के समान प्रशस्त गमन होता है वह प्रशस्त वियोगति नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे गधा, ऊंट और शृगालके समान उनका अप्रशस्त गमन होता है वह अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म है ।
तणामं थावरणामं बादरणामं सुहुमणामं पज्जत्तणामं एवं जाव णिमिणतित्थयरणामं चेदि ॥ ४४ ॥
त्रस नामकर्म, स्थावर नामकर्म, बादर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म और पर्याप्त नामकर्म; इनको आदि लेकर निर्माण और तीर्थंकर नामकर्म तक अर्थात् अपर्याप्त नामकर्म, प्रत्येकशरीर नामकर्म, साधारणशरीर नामकर्म, स्थिर नामकर्म, अस्थिर नामकर्म, शुभ नामकर्म, अशुभ नामकर्म, सुभग नामकर्म, दुर्भग नामकर्म, सुखर नामकर्म, दुःखर नामकर्म, आदेय नामकर्म, अनादेय नामकर्म, यशः कीर्ति नामकर्म, अयशः कीर्ति नामकर्म, निर्माण नामकर्म, और तीर्थंकर नामकर्म ॥ ४४ ॥ ये सब पिण्डप्रकृतियां नहीं हैं, इस बातको बतलानेके लिये यहां इनका फिरसे उल्लेख किया गया है ।
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