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१, १, १५३ ] संतपरूवणाए सम्मत्तमग्गणा
[ ४७ . औपशमिक सम्यग्दर्शनके गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
उवसमसम्माइट्ठी असंजदसम्माइट्टिप्पहुडि जाव उवसंतकसाय-वीयराग-छदुमत्था त्ति ।। १४७॥
उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ॥ १४७ ।।
अब सासादनसम्यक्त्वके गुणस्थानका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं-- सासणसम्माइट्ठी एकम्मि चेय सासणसम्माइट्टिाणे ॥ १४८ ॥ सासादनसम्यग्दृष्टि जीव एक सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें ही होते हैं ॥ १४८ ॥ अब सम्यग्मिथ्यात्वके गुणस्थानका निर्देश करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंसम्मामिच्छाइट्ठी एकम्मि चेय सम्मामिच्छाइट्टिट्ठाणे ॥ १४९ ॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव एक सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होते हैं ॥ १४९ ॥ अब मिथ्यात्व सम्बन्धी गुणस्थानका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंमिच्छाइट्टी एइंदियप्पहुडि जाव सण्णिमिच्छाइट्ठि त्ति ॥ १५० ॥ मिथ्यादृष्टि जीव एकेन्द्रियसे लेकर संज्ञी मिथ्यादृष्टि तक होते हैं ॥ १५० ॥ अब सम्यग्दर्शनका मार्गणाओंमें निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
णेरइया अस्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्टि त्ति ॥ १५१ ॥
नारकी जीव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १५१ ॥
अब सातों पृथिवियोंमें सम्यग्दर्शनका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंएवं जाव सत्तसु पुढवीसु ॥ १५२ ॥ इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें प्रारम्भके चार गुणस्थान होते हैं ॥ १५२ ॥ अब नारकियोंमें विशेष सम्यग्दर्शनका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं--
णेरड्या असंजदसम्माइटिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी चेदि ॥ १५३ ॥
नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १५३ ॥
अब प्रथम पृथ्वीमें सम्यग्दर्शनके भेद बतलानेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
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