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१, ३, ५५ ]
खेत्तपमाणाणुगमे णाणमग्गणा
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चारों कषायवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ४८ ॥
वरि विसेसो, लोभकसाईसु सुहुमसांपराइय-सुद्धिसंजदा उवसमा खवा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे || ४९ ॥
विशेषता यह है कि लोभकपायी जीवोंमें सूक्ष्मसाम्परायिक-शुद्धि-संयत उपशमक और क्षपक जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ४९ ॥
अकसाईसु चदुट्ठाणमोघं ॥ ५० ॥
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अकषायी जीवोंमें उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानोंका क्षेत्र ओघ क्षेत्रके समान यद्यपि उपशान्तकपाय गुणस्थान में कषायोंका उपशम रहनेसे उसे सर्वथा अकषाय नहीं कहा जा सकता है, तो भी वहां भाव कषायोंका अभाव रहनेसे उसे भी यहां अकषायी गुणस्थानोंमें ग्रहण कर लिया गया है ।
अब ज्ञानमार्गणाकी अपेक्षा क्षेत्रका निरूपण करते हैं---
णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ ५१ ॥ ज्ञानमार्गणा अनुवाद से मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र ओघके समान सर्व लोक है ॥ ५१ ॥
सासणसम्म दिट्ठी ओघं ।। ५२ ।।
सासादनसम्यग्दृष्टि मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंका क्षेत्र ओघ सासादनसम्यग्दृष्टियों के समान लोकका असंख्यातवां भाग है ।। ५२ ॥
विभंगणाणीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ५३ ॥
विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ५३ ॥
आभिणिबोहिय सुद-ओहिणाणीसु असंजदसम्मादिद्विप्पहुडि जाव खीणकसायवीदराग-छदुमत्था केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ५४ ॥
आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ५४ ॥
मणपज्जत्रणाणीसु पमत्तसंजद पहुडि जाव खीणकसाय - वीदराग छदुमत्था लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।। ५५ ।।
मन:पर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान
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