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१, ६, ३१४ ]
अंतराणुगमे लेस्सामग्गणा
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पडुच्च ओघं ॥ ३०५ ॥
तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥३०५॥
एगजीवं पड्डुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥३०६॥
एक जीवकी अपेक्षा उनका जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है ॥ ३०६ ॥
उक्कस्सेण वे अट्ठारस सागरोबमाणि सादिरेयाणि ॥ ३०७ ।।
एक जीवकी अपेक्षा उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम मात्र होता है ॥ ३०७ ॥
संजदासंजद-पमत्त-अपमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं ।। ३०८॥
__ तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥३७८॥
सुक्ललेस्सिएसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३०९॥
शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ ३०९ ॥
___ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३१० ॥ उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥३११ ॥
__ एक जीवकी अपेक्षा उनका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है ॥ ३१०॥ तथा उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम मात्र होता है ॥ ३११ ॥
सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ ३१२ ॥
शुक्ललेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३१२ ॥
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ ३१३ ॥
एक जीवकी अपेक्षा उन्हींका जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है ।। ३१३ ।।
उक्कस्सेण एक्कत्ती सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ३१४ ।।
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