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१२४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ७, ६१ सुक्कलेस्सिएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ६१ ॥
शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली तक इन भावोंकी प्ररूपणा ओघके. समान है ॥ ६१ ॥
. भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ६२॥
__ भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धिकोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली तक इन भावोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ६२ ।।
अभवसिद्धिय त्ति को भावो ? पारिणामिओ भावो ॥ ६३॥
अभव्यसिद्धिक यह कौन-सा भाव है ? कर्मके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे न उत्पन्न होनेके कारण वह पारिणामिक भाव है ।। ६३ ॥
सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ।। ६४ ॥
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली तक इन भावोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ६४ ॥
खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिहि त्ति को भावो ? खइओ भावो ॥ ६५ ॥ क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥६५॥ खइयं सम्मत्तं ॥६६॥ उक्त जीवोंका सम्यक्त्व क्षायिक ही होता है ॥ ६६ ॥ ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ ६७ ।। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ ६७ ॥ संजदासंजद-पमत्त-अप्पमत्तसंजदा ति को भावो ? खओवसमिओ भावो ॥६८॥
क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौन-सा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ ६८ ॥
कारण यह है कि इन तीनों गुणस्थानवी जीवोंके चारित्रमोहनीय कर्मके उदयके होनेपर भी चारित्रके एकदेशरूप संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत भाव पाया जाता है ।
खइयं सम्मत्तं ॥ ६९ ॥ उक्त जीवोंके क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है ॥ ६९ ।। चदुण्हमुवसमा त्ति को भावो ? ओवसमिओ भावो ।। ७० ॥
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