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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं ..
[१,९-१, २३ उस चारित्रको जो मोहित करता है, अर्थात् अच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं । वह चारित्रमोहनीय कर्म कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीयके भेदसे दो प्रकारका है।
जं तं कसायवेदणीयं कम्मं तं सोलसविहं- अणंताणुबंधिकोह-माण-माया-लोहं अपच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं पच्चक्खाणावरणीयकोह-माण-माया-लोहं कोह-- संजलणं माणसंजलणं मायासंजलणं लोहसंजलणं चेदि ॥ २३ ॥
जो वह कषायवेदनीय कर्म है वह सोलह प्रकारका है- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ; क्रोधसंचलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन ॥ २३ ॥
जो दुःखरूप धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी खेतका कर्षण करती हैं, अर्थात् उसे फलोत्पादक बनाती हैं वे कषाय कहलाती हैं । वे सामान्यरूपसे चार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोध, रोष और संरम्भ ये समानार्थक शब्द हैं । मान और गर्व ये एकार्थवाचक नाम हैं । माया, निकृति, वंचना और कुटिलता ये पर्यायवाची शब्द हैं । लोभ और गृद्धि ये दोनों एकार्थक नाम हैं । जिनका स्वभाव अनन्त भवोंकी परम्पराको स्थिर रखना है वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ कहलाते हैं । अभिप्राय यह कि जिन क्रोध, मान, माया और लोभके साथ सम्बद्ध होकर जीव अनन्त भवोंमें परिभ्रमण करता है उन क्रोध, मान, माया और लोभ कषायोंका नाम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ है । इन कषायोंके द्वारा जीवमें उत्पन्न हुआ संस्कार चूंकि अनन्त भव तक रहता है, इसलिये इनका अनन्तानुबन्धी यह सार्थक नाम है । ये चारों कषायें सम्यक्त्व और चारित्र दोनोंकी विरोधी हैं । जो क्रोध, मान, माया और लोभ जीवके अप्रत्याख्यान अर्थात् ईषत् प्रत्याख्यान ( देशसंयम ) का विघात करते हैं वे अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ कहलाते हैं। प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत ये तीनों समानार्थक नाम हैं । जो क्रोधादि उस प्रत्याख्यानका आवरण करते हैं वे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया
और लोभ कहलाते हैं । जो क्रोध, मान, माया और लोभ चारित्रके साथ उदित रहकर भी उसका विघात नहीं करते हैं उन्हें संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ कहा जाता है। संज्वलन इस शब्दमें 'सम् ' का अर्थ एकीभाव और ज्वलनका अर्थ है जलना अर्थात् प्रकाशमान रहना है । अभिप्राय यह हुआ कि जो चारित्रके साथ एकीभावरूपसे प्रकाशमान रहते हुए भी उसका विघात नहीं करते हैं वे संज्वलन क्रोधादि कहलाते हैं। ये संचलन कषायें चूंकि संयममें मलको उत्पन्न करके यथाख्यात चारित्रकी उत्पत्तिके प्रतिबन्धक होती हैं, इसीलिये इनको चारित्रावरण माना गया है।
जं तं णोकसायवेदणीयं कम्मं तं णवविहं- इत्थिवेदं पुरिसवेदं णqसयवेदं हस्सरदि-अरदि-सोग-भय-दुगंछा चेदि ॥ २४ ॥
जो वह नोकषायवेदनीय कर्म है वह नौ प्रकारका है- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद,
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