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१,९-१, २२] जीवट्ठाण-चूलियाए पयडिसमुक्कित्तणं
[ २६५ साता नाम सुखका है, उस सुखका जो अनुभव कराता है वह सातावेदनीय कर्म है । असाता नाम दुःखका है, उस दुःखका जो अनुभव कराता है उसे असातावेदनीय कर्म कहते हैं ।
मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीसं पयडीओ ॥१९॥ मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियां हैं ॥ १९॥ जं तं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं दंसणमोहणीयं चेव चारित्तमोहणीयं चेव ॥२०॥ जो वह मोहनीय कर्म है वह दो प्रकारका है- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ॥
जंतं दसगमोहणीय कम्मं तं बंधादो एयविहं । तस्स संतकम्म पुण तिविहं-सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि ॥ २१ ॥
जो वह दर्शनमोहनीय कर्म है वह बन्धकी अपेक्षा एक प्रकारका है, किन्तु उसका सत्त्व तीन प्रकारका है- सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ॥ २१ ॥
आप्त, आगम और पदार्थविषयक रुचि अथवा श्रद्धानका नाम दर्शन है । उस दर्शनको जो मोहित अर्थात् विपरीत कर देता है उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। इस कर्मके उदयसे अनाप्तमें आप्तबुद्धि, अनागममें आगमबुद्धि और अपदार्थमें पदार्थबुद्धि हुआ करती है; तथा आप्त, आगम और पदार्थविषयक श्रद्धानमें अस्थिरताके साथ आप्त-अनाप्त, आगम-अनागम और पदार्थअपदार्थ दोनोंमें भी श्रद्धा हुआ करती है । वह दर्शनमोहनीय कर्म बन्धकी अपेक्षा एक प्रकारका है, क्योंकि, मिथ्यात्व आदि बन्धकारणोंके द्वारा आनेवाले दर्शनमोहनीयरूप पुद्गलस्कन्ध एक स्वभावरूप पाये जाते हैं । इस प्रकार बन्धकी अपेक्षा एक प्रकारका होकर भी वह सत्त्वकी अपेक्षा तीन प्रकारका है । कारण यह कि जिस प्रकार चक्कीसे दले गये कोदोंके कोदों, तंदुल और अर्थ तंदुल ये तीन भाग हो जाते हैं उसी प्रकार अपूर्वकरण आदि परिणामोंके द्वारा दले गये दर्शनमोहनीयके तीन विभाग हो जाते हैं । उनमें जिसके उदयसे आप्त, आगम और पदार्थकी श्रद्धामें शिथिलता होती है वह सम्यक्त्वप्रकृति है। जिसके उदयसे आप्त, आगम और पदार्थोमें अश्रद्धा होती है वह मिथ्यात्वप्रकृति है । तथा जिसके उदयसे आप्त, आगम व पदार्थोमें तथा उनके प्रतिपक्षभूत कुदेव, कुशास्त्र और कुतत्त्वोंमें भी एक साथ श्रद्धा उत्पन्न होती है वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति है।
जं तं चारित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं कसायवेदणीयं चेव णोकसायवेदणीय चेव ॥
जो वह चारित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकारका है- कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय ॥ २२ ॥
पापक्रियाकी निवृत्तिको चारित्र कहते हैं । पापसे अभिप्राय घातिकोंका है । अतएव उनकी जो मिथ्यात्व व अविरति आदि स्वरूप क्रिया है उसके अभावको चारित्र समझना चाहिये ।
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