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१, ९-१, ११ ]
जीवट्ठाण - चूलियाए पयडिसमुक्कित्तणं
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जो वेदन अर्थात् अनुभवन किया जाय वह वेदनीय कर्म है । ' वेद्यते इति वेदनीयम् ' अर्थात् जिसका वेदन किया जाय वह वेदनीय है, इस निरुक्तिके अनुसार यद्यपि सब ही कर्मो के वेदनीयपनेका प्रसंग प्राप्त होता है, फिर भी यहां रूढिके वश इस ' वेदनीय ' शब्दको विवक्षित पौद्गुलिक कर्मका वाचक ग्रहण करना चाहिये । अथवा, ' वेदयति इति वेदनीयम् ' इस निरुक्तिके अनुसार जो पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्वादिके निमित्तसे कर्म पर्यायको प्राप्त होता हुआ जीवके साथ सम्बद्ध होकर उसे सुख और दुखका अनुभव कराता है वह कहा जाता है ।
' वेदनीय
इस नामसे
मोहणीयं ॥ ८ ॥
मोहनीय कर्म है ॥ ८ ॥
मोहयतीति मोहनीयम् ' अर्थात् जो जीवको मोहित करता है वह ' मोहनीय ' कहा
जाता है । ' वेदनीय ' शब्द के समान इस मोहनीय शब्दको भी कर्मविशेषमें रूढ समझना चाहिये । इसीलिये यहां धतूरा, शराब एवं स्त्री आदि भी यद्यपि जीवको मोहित करनेवाले हैं, फिर भी उन्हें मोहनीयपनेका प्रसंग नहीं प्राप्त होता है ।
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आउअं ॥ ९ ॥
आयु कर्म है ॥ ९ ॥
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एति भवधारणं प्रति इति आयुः ' इस निरुक्तिके अनुसार जो भवधारणके प्रति जाता
वह आयु कर्म है । अभिप्राय यह कि जो पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व आदि बन्धकारणोंके द्वारा नारक आदि भवोंके धारण करानेकी शक्तिसे परिणत होकर जीवके साथ सम्बद्ध होते हैं उनका नाम आयु कर्म है ।
णामं ॥ १० ॥
नाम कर्म है ॥ १० ॥
जो नाना प्रकारकी रचना करता है वह नामकर्म कहलाता है । अभिप्राय यह कि शरीर व उसके संस्थान, संहनन, वर्ण एवं गन्ध आदि कार्योंके करनेवाले जो पुद्गलस्कन्ध जीवके -साथ सम्बद्ध होते हैं वे नामकर्म कहे जाते हैं ।
गोदं ॥ ११ ॥
गोत्र कर्म है ॥ ११ ॥
गमयति उच्च-नीच कुलम् इति गोत्रम् ' इस निरुक्तिके अनुसार जो उच्च और नीच कुलको जतलाता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं । अभिप्राय यह है कि जो पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व आदि बन्धकारणोंके द्वारा जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त होकर उसे उच्च और नीच कुलमें उत्पन्न कराता
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