________________
२६०]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-१, ३
इदाणिं पगडिसमुकित्तणं कस्सामो ॥३॥ अब प्रकृतियोंके स्वरूपका निरूपण करेंगे ॥ ३ ॥
प्रकृतियोंके समुत्कीर्तनको प्रकृतिसमुत्कीर्तन. कहते हैं । प्रकृतिसमुत्कीर्तनसे अभिप्राय प्रकृतियोंके स्वरूपका निरूपण करनेका है । वह प्रकृतिसमुत्कीर्तन मूलप्रकृतिसमुत्कीर्तन और उत्तरप्रकृतिसमुत्कीर्तनके भेदसे दो प्रकारका है । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा अपने अन्तर्गत समस्त भेदोंका संग्रह करनेवाली प्रकृतिका नाम मूलप्रकृति है । पर्यायार्थिक नयकी विवक्षासे पृथक् पृथक् अवयववाली प्रकृतिको उत्तरप्रकृति कहते हैं । इनमेंसे यहां पहिले समस्त उत्तरप्रकृतियोंका संग्रह करनेवाली मूलप्रकृतियोंकी प्ररूपणा की जाती है ।
तं जहा ॥ ४ ॥ णाणावरणीयं ॥ ५॥ वह प्रकृतिसमुत्कीर्तन इस प्रकार है ॥ ४ ॥ ज्ञानावरणीय कर्म है ॥ ५ ॥
ज्ञान, अवबोध, अवगम और परिच्छेद ये सब एकार्थवाचक नाम हैं । इस ज्ञानका जो आवरण करता है वह ज्ञानावरणीय कर्म कहलाता है । 'ज्ञानावरणीय ' कहनेसे यह अभिप्राय समझना चाहिए कि जीवके लक्षणभूत ज्ञानका आवरण तो हो सकता है, किन्तु उसका विनाश कभी भी सम्भव नहीं है । कारण यह कि यदि ज्ञान और दर्शनका सर्वथा विनाश माना जाय तो जीवका भी विनाश अनिवार्य प्राप्त होगा, क्योंकि, लक्षणसे रहित लक्ष्य नहीं पाया जाता है । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है । यथार्थतः अक्षरके अनन्तवें भाग मात्र सबसे जघन्य ज्ञान निरन्तर प्रगट रहता है- उसका कभी आवरण नहीं होता । इस ज्ञान गुणका जो आवारक है वह ज्ञानावरणीय कर्म है जो पौद्गलिक होकर प्रवाहवरूपसे अनादिनिधन है ।
दसणावरणीयं ॥६॥ दर्शनावरणीय कर्म है ॥ ६ ॥
आत्मविषयक उपयोगको दर्शन कहते हैं । ज्ञान जहां बाह्य अर्थोको विषय करता है वहां दर्शन अंतरंगको विषय करता है, यह इन दोनोंमें विशेषता है । ज्ञानके समान इस दर्शन गुणका भी कभी निर्मूल विनाश नहीं होता, क्योंकि, अन्यथा तत्स्वरूप जीवके भी विनाशका प्रसंग दुर्निवार होगा । इस प्रकारके दर्शन गुणका जो आवरण करता है वह दर्शनावरणीय कर्म है । अभिप्राय यह है कि जो पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके द्वारा कर्मस्वरूपसे परिणत होकर जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त होता हुआ दर्शन गुणका आवरण करता है उसे दर्शनावरणीय कर्म समझना चाहिये ।
वेदणीयं ॥ ७॥ वेदनीय कर्म है ॥ ७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org