________________
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ७, १२
सम्मामिच्छादिट्ठित्त को भावो ? खओवसमिओ भावो ॥ १२ ॥ नारकियोंमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि यह कौन-सा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ १२ ॥ असजद सम्मादिट्ठित्ति को भावो ! उवसमिओ वा खइओ वा खओवसमिओ वाभावो ।। १३ ।।
नारकियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? औपशमिक भाव भी है, क्षायिक भाव भी है, और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ १३ ॥
२१८ ]
raण भावेण पुणो असंजदो ॥ १४ ॥
किन्तु नारकियोंमें जो असंयम भाव है वह चूंकि संयमघातक चारित्रमोहनीयके उदयसे होता है, अतएव उसे औदयिक भाव समझना चाहिये ॥ १४ ॥
एवं पढमा पुढवीए रइयाणं ।। १५ ।।
इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें नारकियोंके उक्त चारों गुणस्थानों सम्बन्धी भाव होते हैं । विदियाए जाव सत्तमीए पुढवीए णेरइएसु मिच्छाइट्ठि- सासणसम्मादिट्ठिसम्मामिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ १६ ॥
द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि भावोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १६ ॥
असजद सम्मादिति को भावो ! उवसमिओ वा खओवसमिओ वा भावो ॥ उक्त नारकियों में असंयत सम्यग्दृष्टि यह कौन-सा भाव है ? औपशमिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ १७ ॥
द्वितीयादि पृथिवियोंमें चूंकि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके उत्पन्न होनेकी सम्भावना नहीं है, अतएव न पृथिवियोंके नारकियोंमें क्षायिक असंयतसम्यग्दृष्टि भाव नहीं होता है ।
ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ।। १८ ।।
किन्तु उक्त नारकी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ १८ ॥ तिरिक्खगदीए तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छादिडिप्पहुडि जाव संजदासंजदाणमोघं ॥ १९ ॥
तिर्यंचगतिमें सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तियच योनिमतियों में मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तकके भावोंकी प्ररूपणा ओघके समान हैं ॥ १९ ॥
वरि विसेसो, पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु असंजदसम्मादिट्टि त्ति को भावो १
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org