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१, ७, ४१] भावाणुगमे वेदमग्गणा
[२२१ औपशमिक सम्यक्त्वके साथ औदारिकमिश्रकाययोग नहीं होता है। इसका भी कारण यह है कि वे देवगतिको छोड़कर अन्यत्र उत्पन्न नहीं होते हैं ।
ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ ३५ ॥ औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका असंयतत्व औदयिक भावसे है ॥ ३५ ॥ सजोगिकेवलि त्ति को भावो ? खइओ भावो ॥ ३६॥ औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सयोगिकेवली यह कौन-सा भाव है ? क्षायिक भाव है ॥
वेउब्वियकायजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठि त्ति ओघभंगो ॥ ३७॥
वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक इन भावोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३७॥
वेउब्वियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी ओघं ॥ ३८॥
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन भावोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३८ ॥
__आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीसु पमत्तसंजदा त्ति को भावो ? खओवसमिओ भाओ ॥ ३९ ॥
___ आहारकाययोगी और आहारमिश्रकाययोगियोंमें प्रमत्तसंयत यह कौन-सा भाव है ? क्षायोपशमिक भाव है ॥ ३९ ॥
__ कारण कि उक्त दोनों योगवाले जीवोंमें यथाख्यातचारित्रका आवरण करनेवाली चारों संचलन और सात नोकषायोंके उदयके होनेपर भी प्रमादसंयुक्त संयम पाया जाता है।
कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी सजोगिकेवली ओघ ।। ४० ॥
___ कार्मणकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगिकेवली इन भावोंकी प्ररूपणा ओषके समान है ॥ ४० ॥
वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेद-णउसयवेदएसु मिच्छादिट्ठिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ ४१ ॥
वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण तक इन भावोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ४१ ॥
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