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१, ६, ३३७ ] अंतराणुगमे सम्मत्तमग्गणा
[२०९ एक जीवकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ ३२५ ॥ चदुण्हं खवगा ओघं ॥ ३२६ ।। सजोगिकेवली ओघ ।। ३२७ ॥
उक्तलेश्यावाले चारों क्षपकोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३२६॥ शुक्ललेश्यावाले सयोगिकेवलियोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३२७ ॥
भवियाणुवादेण भवसिद्धिएसु मिच्छादिहिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥
भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्धिकोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती भव्य जीवोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३२८ ॥
अभवसिद्धियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३२९॥
अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ ३२९ ॥
एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं ।। ३३० ॥ एक जीवकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ।। ३३० ॥
सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।। ३३१ ।।
सम्यक्त्वमार्गणाके अनुवादसे सम्यग्दृष्टियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ ३३१ ।।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥३३२॥ उक्कस्सेण पुचकोडी देसूणं ॥
एक जीवकी अपेक्षा उनका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है ॥३३२॥ उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि मात्र होता है ॥ ३३३ ॥
संजदासंजदप्पहुडि जाव उवसंतकसाय-वीदराग-छदुमत्था ओधिणाणिभंगो ॥
संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टियोंके अन्तरकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है ॥ ३३४ ॥
चदुण्डं खवगा अजोगिकेवली ओघं ॥३३५॥ सजोगिकेवली ओघं ।।३३६॥
सम्यग्दृष्टियोंमें चारों क्षपक और अयोगिकेवलियोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३३५ ॥ सयोगिकेवलियोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ ३३६॥
खइयसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ।। ३३७॥ छ. २७
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