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१, ६, १३० ] अंतराणुगमे कायमग्गणा
[१८९ ___ एक जीवकी अपेक्षा उक्त गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक हजार सागरोपम तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका वह उत्कृष्ट अन्तर शतपृथक्त्वसागरोपम मात्र होता है ॥ १२१ ॥
चदुण्हमुवसामगाणं णाणाजीवं पडि ओघं ।। १२२ ।।
नाना जीवोंकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें चारों उपशामकोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १२२ ॥
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १२३ ॥ एक जीवकी अपेक्षा इन्हीं चारों उपशामकोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है ।
उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुन्चकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, सागरोवमसदपुधत्तं ॥ १२४ ॥
एक जीवकी अपेक्षा पंचेन्द्रियोंमें चारों उपशामकोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक हजार सागरोपम और पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंमें उन्हींका वह उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व मात्र होता है ॥ १२४ ॥
चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ १२५ ।।
उक्त पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें चारों क्षपक और अयोगिकेवलियों के अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १२५॥
सजोगिकेवली ओघं ।। १२६ ॥ सयोगिकेवलियोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १२६ ॥ पंचिदियअप्पज्जत्ताणं वेइंदियअपज्जत्ताणं भंगो ॥ १२७ ॥ पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तोंका अन्तर द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तोंके समान है ॥ १२७ ॥ एदमिदियं पडुच्च अंतरं ॥ १२८ ।। यह पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तोंका अन्तर इन्द्रियमार्गणाके आश्रयसे कहा गया है ॥ १२८ ॥ गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १२९ ॥ गुणस्थानकी अपेक्षा दोनों ही प्रकारसे उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥१२९ ।।
कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-बादर-सुहुम-पज्जत्तअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥१३०॥
___ कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, इनके बादर और सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ १३० ॥
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