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२०४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ६, २७४ नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय मात्र अन्तर होता है ॥२७२ ॥ उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व मात्र होता है ॥ २७३ ॥
एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।। २७४ ।। एक जीवकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ २७४ ॥ खवाणमोघं ॥ २७५ ॥ सूक्ष्मसाम्पराय-शुद्धिसंयतोंमें क्षपकोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २७५ ॥ जहाक्खाद-विहार-सुद्धिसंजदेसु अकसाइभंगो ॥ २७६ ॥
यथाख्यात-विहार-शुद्धिसंयतोंमें चारों गुणस्थानोंके अन्तरकी प्ररूपणा अकषायी जीवोंके समान है ॥ २७६ ॥
संजदासंजदाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? णाणेगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ।। २७७॥
संयतासंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ २७७ ॥
असंजदेसु मिच्छादिट्ठीणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च गत्थि अंतरं, णिरंतरं ।। २७८ ॥
असंयतोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ।। २७८ ।।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २७९ ।। एक जीवकी अपेक्षा असंयत मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २८०॥ .
एक जीवकी अपेक्षा उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर कुछ (छह अन्तर्मुहूर्त) कम तेतीस सागरोपम मात्र होता है ।। २८० ॥
सासणसम्मादिद्वि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमोघं ।। २८१ ॥
असंयतोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ।। २८१ ॥
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिट्ठीणमोघं ॥ २८२ ।।
दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २८२ ॥
सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं
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