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१९६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ६, १८४ णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥१८४ ॥
असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥१८४॥
एगजी पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १८५ ॥
एक जीवकी अपेक्षा उक्त चार गुणस्थानवाले स्त्रीवेदियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है ॥ १८५ ॥
उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं ॥ १८६ ॥
__ एक जीवकी अपेक्षा उक्त चार गुणस्थानवाले स्त्रीवेदी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमशतपृथक्त्व मात्र होता है ॥ १८६ ॥
दोण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुकस्समोघं ॥१८७ ॥
अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दो गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदी उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान होता है।
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ १८८ ॥ एक जीवकी अपेक्षा उनका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है ॥ १८८ ।। उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं ॥ १८९ ॥ एक जीवकी अपेक्षा उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमशतपृथक्त्व मात्र होता है ॥ १८९ ॥
दोण्हं खवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ १९० ॥
स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दो क्षपकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका अन्तर जघन्यसे एक समय मात्र होता है ॥ १९० ॥
उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥१९१ ॥
नाना जीवोंकी अपेक्षा उक्त स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण क्षपकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व मात्र होता है ॥ १९१ ॥
__एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १९२ ।।
एक जीवकी अपेक्षा उक्त दो गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदी क्षपकोंका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ १९२ ।।
पुरिसवेदएसु मिच्छादिट्टी ओघं ॥ १९३ ॥ पुरुषवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १९३ ॥
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