________________
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ।। १३१ ॥
एक जीवकी अपेक्षा उक्त पृथिवीकायिक आदि जीवोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण मात्र होता है ॥ १३१ ॥
१९० ]
उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गल परियङ्कं ॥ १३२ ॥
एक जीवकी अपेक्षा उपर्युक्त पृथिवीकायिक आदि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त कालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र होता है ॥ १३२ ॥
केवचिरं
वनस्पतिकायिक, निगोद जीव उनके बादर और सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ! नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ १३३ ॥
वणफदिकाइय- णिगोदजीव - बादर - सुहुम- पज्जत्त-अपज्जत्ताण मंतरं
कालादो होदि ! णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।। १३३ ॥
[ १, ६, १३१
एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३४॥
एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण मात्र होता है ॥ १३४ ॥ उक्कस्से असंखेज्जा लोगा ।। १३५ ।।
एक जीवकी अपेक्षा उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक मात्र होता है ॥ १३५ ॥ बादरवणफदिकाइय- पत्तेयसरीर-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।। १३६ ।।
बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्तोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ १३६॥
एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३७ ॥
एक जीवकी अपेक्षा उन्हींका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण मात्र होता है ॥ १३७ ॥ उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियङ्कं ।। १३८ ।।
एक जीवकी अपेक्षा उन्हींका उत्कृष्ट अन्तर अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है ॥ १३८ ॥ तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ।। १३९ ।।
कायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंके अन्तरकी प्ररूपणा ओधके समान है ।। १३९ ॥
सास सम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पहुच ओघं ।। १४० ॥
सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org