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१, ६, ९५ ] अंतराणुगमे गदिमग्गणा
[ १८५ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय मात्र होता है ॥ ८७ ॥
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो ॥ ८८॥ नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका उत्कृष्ट अन्तर पत्योपमके असंख्यातवे भाग मात्र होता है ॥ एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो, अंतोमुहुत्तं ।। ८९ ॥
एक जीवकी अपेक्षा देवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंका जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमके असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है ॥ ८९ ॥
उक्कस्सेण एक्कत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि ॥९०॥
- एक जीवकी अपेक्षा उक्त दोनों गुणस्थानवर्ती देवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम मात्र होता है ॥ ९० ॥
भवणवासिय-चाणवेंतर-जोदिसिय-सोधम्मीसाणप्पहुडि जाव सदार-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु मिच्छादिहि-असंजदसम्मादिट्टीमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ९१॥
- भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ऐशानसे लेकर शतार-सहस्रार कल्प तकके कल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ।। ९१॥
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ।। ९२ ।।
एक जीवकी अपेक्षा उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है ॥ ९२ ॥
उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं वे सत्त दस चोदस सोलस अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ९३ ॥
एक जीवकी अपेक्षा उनका उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः एक सागरोपम व एक पत्योपम तथा साधिक दो, सात, दश, चौदह, सोलह और अठारह सागरोपम मात्र होता है । ९३ ॥
सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणं सत्थाणोघं ।। ९४ ॥
उक्त भवनवासी आदि देवोंमें सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके अन्तरकी प्ररूपणा स्वस्थान ओघके समान है ॥ ९४ ॥
आणद जाव णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ।। ९५ ॥ छ. २४
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