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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ६, ३
अन्तरका प्रतिषेध करनेपर वह प्रतिषेध तुच्छ अभावरूप नहीं होता है, किन्तु भावान्तर के सद्भावरूप होता है; इस अभिप्रायको प्रगट करनेके लिये निरन्तर पदकों ग्रहण किया है । अभिप्राय यह हुआ कि मिथ्यादृष्टि जीव सर्व काल रहते हैं ।
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एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३ ॥
एक जीवकी अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र है ॥ ३॥
एक मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमसे बहुत बार परिणत होता हुआ परिणामोंके निमित्तसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और वहांपर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया। इस प्रकारसे एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टिका अन्तर सर्वजधन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है ।
उक्कस्से वे छावसिागरोवमाणि देखणाणि ॥ ४ ॥
एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छ्यासठ सागरोपम प्रमाण है ॥ ४ ॥
कोई एक तिर्यंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयुस्थितिवाले लान्तव - कपिष्ठ कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहां वह एक सागरोपम काल बिताकर दूसरे सागरोपमके प्रथम समय में सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ तथा वहांपर तेरह सागरोपम काल रहकर सम्यक्त्वके साथ ही च्युत होता हुआ मनुष्य हो गया। उस मनुष्यभवमें संयम अथवा संयमासंयमका पालन कर उस मनुष्यभव संबन्धी आयु कम बाईस सागरोपम आयुकी स्थितिवाले आरण- अच्युत कल्पके देवोंमें उत्पन्न हुआ । वहांसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ । इस मनुष्यभवमें संयमका पालन कर उपरिम ग्रैवेयकवासी देवोंमें मनुष्यायु से कम इकतीस सागरोपम आयुवाले अहमिन्द्र देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांपर अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपम कालके अन्तिम समय में परिणामों के निमित्त से सम्यग्मिथ्यादृष्टि हुआ और उस सम्यग्मिथ्यात्व में अन्तर्मुहूर्त काल रहकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त होकर विश्राम ले च्युत हुआ तथा मनुष्य हो गया । उस मनुष्यभवमें संयम अथवा संयमासंयमका परिपालन कर मनुष्यभव संबन्धी आसे कम बीस सागरोपम आयुवाले आनत -प्राणत कल्पके देवोंमें उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् यथाक्रमसे मनुष्यायु से कम बाईस और चौबीस सागरोपमकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागरोपम कालके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया । इस प्रकारसे मिथ्यात्वका अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ ( १३ + २२ + ३१ = ६६, २० + २२ + २४ = ६६ ) सागरोपम काल प्रभाग वह अन्तर प्राप्त हो जाता है । अन्तरकालकी सिद्धि के निमित्त यह ऊपर कहा गया उत्पत्तिका क्रम साधारण जनोंको समझानेके लिये है । वास्तवमें तो जिस किसी भी प्रकारसे उस कालको पूरा किया जा सकता है ।
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