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९४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ३, ४१ सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माइट्टी ओघं ॥ ४१ ।।
कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ४१ ॥
सजोगिकेवली केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु सबलोगे वा ॥ ४२ ॥
कार्मणकाययोगी सयोगिकेवली भगवान् कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? प्रतरसमुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागोंमें और लोकपूरणकी अपेक्षा सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ४२ ।।
अब वेदमार्गणाकी अपेक्षा क्षेत्रका निरूपण करते हैं
वेदाणुवादेण इत्थिवेद-पुरिसवेदेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टी केवडिखेत्ते ! लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।। ४३ ।।
वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ! लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ४३ ॥
णqसयवेदेसु मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ ४४ ॥
नपुंसकवेदी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंका क्षेत्र ओघक्षेत्रके समान है ॥ ४४ ॥
अपगदवेदएसु अणियट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली केवडिखेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ४५ ॥
अपगतवेदी जीवोंमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अवेदभागसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ४५॥
सजोगिकेवली ओथं ॥४६ ॥ अपगतवेदी सयोगिकेवलीका क्षेत्र ओवके समान है ॥ ४६॥ अब कषायमार्गणाकी अपेक्षा क्षेत्रका निरूपण करते हैं
कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाईसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥४७॥
कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र ओघके समान सर्व लोक है ।। ४७ ।।
सासणसम्मादि टिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेजदिभागे ॥ ४८॥
सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती
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