________________
१२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ५, ३ उनका कभी अभाव नहीं होता है ।
एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो, अणादिओ सपज्जवसिदो, सादिओ सपज्जवसिदो । जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिदेसो-जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥३॥
- एक जीवकी अपेक्षा उक्त मिथ्यादृष्टि जीवोंका काल तीन प्रकारका है- अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । इनमें जो सादि-सान्त काल है उसका निर्देश इस प्रकार है- एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवोंका वह सादि-सान्त काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है ॥ ३ ॥
___यहां एक जीवकी अपेक्षा जो अनादि-अनन्त काल कहा गया है उसे अभव्य मिथ्यादृष्टि जीवकी अपेक्षा समझना चाहिये । कारण यह कि अभव्य जीवके मिथ्यात्वका न आदि है, न मध्य है, और न अन्त भी कभी उसका होता है। भव्य मिथ्यादृष्टि (जैसे वर्धनकुमार ) का काल अनादि होकर भी सान्त है, क्योंकि, वह मिथ्यात्वभावसे रहित होकर मुक्तिको प्राप्त करनेवाला है । कृष्ण आदिके समान किसी किसी भव्य मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वका वह काल सादि-सान्त भी होता है, जो जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत जीव परिणामोंके निमित्तसे मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। वहांपर वह सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल रह करके पुनः सम्यग्मिथ्यात्वको, असंयमके साथ सम्यक्त्वको, संयमासंयमको अथवा अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त हुआ। ऐसे जीवके मिथ्यात्वका वह काल जघन्यरूपसे सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र पाया जाता है।
सासादनसभ्यग्दृष्टिका मिथ्यात्वको प्राप्त होकर परिणामोंकी अतिशय संक्लेशताके कारण मिथ्यात्वको शीघ्रतासे छोड़ना सम्भव नहीं है।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूर्ण ॥ ४ ॥
एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्वका वह सादि-सान्त काल उत्कर्षसे कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र है ॥ ४ ॥
__सासणसम्मादिट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पड्डुच्च जहणण एगसमओ ॥ ५ ॥
सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कितने काल तक होते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय तक होते हैं ॥ ५ ॥
इस एक समयकी प्ररूपणा इस प्रकार है- दो, अथवा तीन, इस प्रकार एक एक अविक क्रमसे बढ़ते हुए पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वक कालं. एक समय मात्र कालके अवशिष्ट रह जानेपर एक साथ सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुए और एक समय वहां रहकर दूसरे समय में सबके सब मिथ्यात्वको प्राप्त हो गये । उस समय तीनों ही लोकोम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .