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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ३, २
प्रकृतमें यहां तदूव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यक्षेत्रभूत आकाशसे प्रयोजन है । वह आकाश अनादि-अनन्त है जो दो प्रकारका है- लोकाकाश और अलोकाकाश । जिसमें जीवादि द्रव्य अवलोकन किये जाते हैं- पाये जाते हैं- उसे लोकाकाश कहते हैं । इसके विपरीत जहां जीवादि द्रव्य नहीं पाये जाते हैं उसे अलोकाकाश कहते हैं । अथवा, देशके भेद से क्षेत्र तीन प्रकारका है- मंदराचलकी चूलिकासे ऊपरका क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है । मंदराचलके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है । तथा मंदर पर्वतकी ऊंचाई प्रमाण क्षेत्र मध्यलोक है । मध्यलोकके दो भाग हैं- मनुष्यलोक और तिर्यग्लोक । मानुषोत्तर पर्यन्त अढ़ाईद्वीपवर्ती क्षेत्रको मनुष्यलोक और उससे आगेके शेष मध्यलोकको तिर्यग्लोक कहते हैं। प्रकृतमें इनके द्वारा ही जीवोंके वर्तमान निवासरूप क्षेत्रका विचार किया जावेगा ।
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जिस प्रकारसे द्रव्य अवस्थित हैं उस प्रकारसे उनको जानना अनुगम कहलाता है । क्षेत्र के अनुगमको क्षेत्रानुगम कहते हैं । क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें ओघनिर्देशके निरूपणके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे ॥ २ ॥
ओघ अर्थात् सामान्य निर्देशकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥ २॥
राजुसे सातगुणी जगश्रेणी होती है । इस जगश्रेणी के वर्गको जगप्रतर और उसके घनको घनलोक कहते हैं । यह लोक नीचे वेत्रासन ( वेतके मूढा ) के समान, मध्यमें झल्लरीके समान और ऊपर मृदंगके समान आकारवाला है । लोककी ऊंचाई चौदह राजु है । उसका विस्तार चार प्रकारका है- अधोलोकके अन्तमें सात राजु, मध्यलोकके पास एक राजु, ब्रह्मलोकके पास पांच राजु और ऊर्ध्वलोकके अन्तमें एक राजु ।
क्षेत्रप्रमाणकी प्ररूपणामें जीवोंकी तीन अवस्थाओंको ग्रहण किया गया है- स्वस्थानगत, समुद्घातगत और उपपादगत । इनमें स्वस्थानगत अवस्था भी दो प्रकारकी होती है- स्वस्थानस्वस्थानगत और विहारवत्स्वस्थानगत । अपने उत्पन्न होनेके ग्राम व नगरादिमें उठने बैठने एवं चलने आदि के व्यापारयुक्त अवस्थाका नाम स्वस्थानस्वस्थान है । अपने उत्पन्न होनेके ग्राम-नगरादिको छोड़कर अन्यत्र सोने, चलने और घूमने आदिको विहारवत्स्वस्थान कहते हैं ।
वेदना आदि कारणविशेषसे मूलशरीरको नहीं छोड़कर आत्मा के कुछ प्रदेशोंके शरीरसे बाहिर निकलनेका नाम समुद्घात है । वह सात प्रकारका है- वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात और केवलिसमुद्घात । शरीरमें पीड़ा होनेके कारण आत्मप्रदेशोंके बाहिर निकलनेको वेदनासमुद्घात कहते हैं । क्रोध और भय आदिके निमित्तसे जीवप्रदेशों के शरीरसे तिगुणे प्रमाण में बाहिर निकलनेको कषायसमुद्घात कहते हैं । वैक्रियिकशरीरके धारक देव और नारकियोंका अपने स्वाभाविक आकारको छोड़कर अन्य
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