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१, १, १७५] संतपरूवणाए सण्णिमग्गणा
[५१ सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर उपरिमउपरिम अवेयकविमानवासी देवों तक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १७० ॥
इसका कारण यह है कि उक्त देवोंमें तीनों ही प्रकारके सम्यग्दृष्टि जीवोंके उत्पन्न होनेकी सम्भावना है तथा वहांपर उत्पन्न होनेके पश्चात् वेदक और औपशमिक इन दो सम्यग्दर्शनोंका ग्रहण भी सम्भव है । इसीलिये उक्त देवोंमें तीनों सम्यग्दर्शनोंका सद्भाव निर्दिष्ट किया गया है।
अणुदिस-अणुत्तरविजय-वइजयंत-जयंतावराजिद-सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा असंजदसम्माइहिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ॥ १७१॥
नौ अनुदिशोंमें तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तरविमानोंमें रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥ १७१ ॥
अब संज्ञीमार्गणाके द्वारा जीवोंका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंसण्णियाणुवादेण अस्थि सण्णी असण्णी ।। १७२ ।। संज्ञीमार्गणाके अनुवादसे संज्ञी और असंज्ञी जीव होते हैं ॥ १७२ ॥ अब संज्ञी जीवोंमें सम्भव गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंसण्णी मिच्छाइटिप्पहुडि जाव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति ।। १७३॥
संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ॥ १७३॥
यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि मनसहित होनेके कारण सयोगकेवली भी तो संज्ञी हैं, फिर यहां सूत्रमें उनका ग्रहण क्यों नहीं किया ? इसका उत्तर यह है कि आवरणकर्मसे रहित हो जानके कारण केवलियोंके मनके अवलम्बनसे बाह्य अर्थका ग्रहण नहीं होता है। इसीलिये सूत्रमें उनका ग्रहण नहीं किया गया है।
अब असंज्ञी जीवोंके गुणस्थान बतलानेके लिये सूत्र कहते हैंअसण्णी.एइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति ।। १७४ ।। असंज्ञी जीव एकेन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक होते हैं ॥ १७४ ॥
तात्पर्य यह है कि उनके एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है, अन्य किसी भी गुणस्थानकी सम्भावना उनके नहीं है।
अब आहारमार्गणाके द्वारा जीवोंका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंआहाराणुवादेण अस्थि आहारा अणाहारा ।। १७५ ॥ आहारमार्गणाके अनुवादसे आहारक और अनाहारक जीव होते हैं ॥ १७५ ॥
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