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१, २, १३९] दव्वपमाणाणुगमे कसायमग्गणा
[७७ समान हैं ॥ १३३ ॥
सजोगिकेवली ओघ ॥ १३४ ॥ अपगतवेदियोंमें सयोगिकेवली जीव ओघ प्ररूपणाके समान हैं ॥ १३४ ॥ अब कषायमार्गणाकी अपेक्षा जीवोंकी संख्याका प्ररूपण करते हैं
कसायाणुवादेण कोधकसाइ-माणकसाइ-मायकसाइ-लोभकसाइसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति ओघं ॥ १३५ ।।
कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें जीवोंका द्रव्यप्रमाण सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ १३५॥
पमत्तसंजदप्प हुडि जाव आणियट्टि त्ति दव्यपमाणेण केवडिया ? संखेज्जा ॥
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक चारों कषायवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १३६ ॥
चारों कषायोंके कालको जोड़ करके और उसकी चार प्रतिराशियां करके अपने अपने कालसे अपवर्तित करके जो संख्या लब्ध हो उससे इच्छित राशिके भाजित करनेपर अपनी अपनी राशि होती है। तदनुसार इन गुणस्थानोंमें मानकषायी जीवराशि सबसे कम है। क्रोधकषायी जीवराशि मानकषायी जीवराशिसे विशेष अधिक है । मायाकषायी जीवराशि क्रोधकषायी जीवराशिसे विशेष अधिक है । लोभकषायी जीवराशि मायाकषायी जीवराशिसे विशेष अधिक है।
णवरि लोभकसाईसु सुहुमसांपराइय-सुद्धि-संजदा उवसमा खवा मूलोघं ॥१३७॥
इतना विशेष है कि लोभकषायी जीवोंमें सूक्ष्मसांपरायिक-शुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीवोंकी प्ररूपणा सामान्य प्ररूपणाके समान है ॥ १३७ ॥
इसका कारण यह है कि क्षपक और उपशमक सूक्ष्मसांपरायिक जीवोंमें सूक्ष्म लोभ कषायको छोड़कर अन्य कोई कषाय नहीं पाई जाती है ।
अकसाईसु उपसंतकसाय-वीयरागछदुमत्था ओघं ॥ १३८ ।
कषायरहित जीवोंमें उपशान्तकषाय-वीतराग छद्मस्थ जीवोंके द्रव्यप्रमाणकी प्ररूपणा सामान्य प्ररूपणाके समान है ॥ १३८ ॥
यहां भावकपायके अभावकी अपेक्षा उपशान्तकषाय जीवोंको अकषायी कहा है, द्रव्य कषायके अभावकी अपेक्षासे नहीं; क्योंकि, उदय, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण आदिसे रहित द्रव्यकर्म यहां पाया जाता है।
खीणकसाय-बीदराग-छदुमत्था अजोगिकेवली ओघं ॥ १३९ ॥
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