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१, १, १६३ ]
संतपरूवणाए सम्मत्तमग्गणा
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इसका कारण यह है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं । यद्यपि पूर्वबद्धायुष्क जीव तिर्यंचोंमें उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे भोगभूमिमें ही उत्पन्न होते हैं, न कि कर्मभूमिमें। और भोगभूमिमें उत्पन्न हुए जीवों के देशसंयमकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है । यही कारण है जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंके पांचवां गुणस्थान नहीं बतलाया गया है ।
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अब तिर्यंचविशेषों में सम्यक्त्वका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंएवं पंचिदियतिरिक्खा पंचिदिय - तिरिक्खपञ्जत्ता ॥ १६० ।।
इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तों में भी सम्यग्दर्शनका क्रम समझना चाहिये ॥ १६० ॥
अब योनिमती तिर्यंचोंमें विशेष प्रतिपादनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं
पंचिदियतिरिक्खजोणिणीसु असंजद सम्माइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि ।। १६१ ॥
योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते, शेष दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं ॥ १६९ ॥
इसका कारण यह है कि योनिमती तिर्यंचोंमें न तो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्तिकी सम्भावना है और न उनमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणाकी भी सम्भावना है । इसीलिये उनके उक्त दोनों गुणस्थानों में क्षायिकसम्यक्त्वका अभाव बतलाया गया है ।
अब मनुष्यों में विशेष प्रतिपादनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं-
मस्सा अत्थिमिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजद सम्माइट्ठी संजदासंजदा संजदा त्ति ।। १६२ ।।
मनुष्य मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत होते हैं ॥ १६२ ॥
एवमड्ढाइजदीव - समुद्देसु ।। १६३ ।।
इस प्रकार अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रोंमें जानना चाहिये ॥ १६३ ॥
यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि अढ़ाई द्वीप समुद्रों के बाहिर भी बैरके वश होकर किन्हीं देवों आदि द्वारा जाकर डाले जानेपर वहां संयतासंयत और संयत मनुष्योंकी सम्भावना क्यों नहीं है ? इसका उत्तर यह है कि मानुषोत्तर पर्वतके आगे देवोंकी प्रेरणासे भी मनुष्योंके पहुंचनेकी सम्भावना
नहीं है ।
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अब मनुष्योंमें सम्यग्दर्शनभेदोंका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं—
मणुसा असंजदसम्माइट्ठी-संजदासंजद-संजदट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदय
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