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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १५४
एवं पढमाए पुढवीए णेरइया ॥ १५४ ॥ इसी प्रकार प्रथम पृथ्वीमें नारकी जीव उक्त तीनों सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते ह ॥१५॥ अब शेष पृथिवियोंमें सम्यग्दर्शनका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
विदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया असंजदसम्माइडिट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अस्थि ।। १५५ ॥
। दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथ्वी तक नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते, शेष दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं ॥ १५५ ।।
अब तिर्यंचगतिमें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
तिरिक्खा अस्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्टी असंजदसम्माइट्ठी . संजदासंजदा ति ।। १५६ ।।
___ तिर्यंच जीव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत होते हैं ।। १५६ ॥
अब तिर्यंचोंका और भी विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंएवं जाव सव्वदीव-समुद्देसु ॥ १५७ ॥ इसी प्रकार सम्पूर्ण द्वीप-समुद्रवर्ती तिर्यंचोंमें समझना चाहिये ॥ १५७ ॥
यद्यपि मानुषोत्तर पर्वतसे आगे तथा स्वयम्भूरमणदीपस्थ खयंप्रभाचलसे पूर्व असंख्यात द्वीप-समुद्रोंमें उत्पन्न तिर्यंचोंके संयमासंयम नहीं होता है, फिर भी वैरके सम्बन्धसे देवों अथवा दानवोंके द्वारा कर्मभूमिसे उठाकर वहां डाले गये कर्मभूमिज देशव्रती तिर्यंचोंका सद्भाव सम्भव है। इसी अपेक्षासे वहांपर तिर्यंचोंके पांचों गुणस्थान बतलाये गये हैं।
अब तिर्यंचोंमें विशेष सम्यग्दर्शनभेदोंका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
तिरिक्खा असंजदसम्माइडिट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी ।। १५८ ॥
तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि भी होते हैं ॥ १५८ ॥
अब तिर्यंचोंके पांचवें गुणस्थानमें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंतिरिक्खा संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अस्थि ।। १५९ ॥
तिर्यंच संयतासंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, शेष दो सम्यग्दर्शनोंसे युक्त होते हैं ॥ १५९ ॥
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