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६६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ५१ कालकी अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ५१ ॥
खेत्तेण सेढीए असंखेज्जदिभागो। तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ। मणुस-अपज्जत्तेहि रूवा पक्खित्तेहि सेढिमवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥ ५२ ॥
क्षेत्रकी अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। उस जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका आयाम असंख्यात करोड़ योजन है। सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूलसे गुणित प्रथम वर्गमूलको शलाकारूपसे स्थापित करके रूपाधिक (एक अधिक) लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके द्वारा जगश्रेणी अपहृत होती है ।। ५२ ॥
सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलको परस्पर गुणित करनेसे जो राशि आवे उससे जगश्रेणीको भाजित करके लब्ध राशिमेसे एक कम कर देनेपर सामान्य मनुष्यराशिका प्रमाण आता है। इसमेंसे पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण घटा देनेपर शेष लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण होता है।
अब देवगतिमें जीवोंकी संख्या बतलाते हुए सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टि देवोंके प्रमाणका निरूपण करते हैं
देवगईए देवेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा ॥ ५३ ॥ देवगतिप्रतिपन्न देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ।
एक एक अंकके घटाते जानेपर जो राशि समाप्त हो जाती है उसे असंख्यात तथा जो इस प्रकारसे समाप्त नहीं होती है उसे अनन्त कहते हैं । अथवा जो संख्या पांचों इन्द्रियोंकी विषयभूत होती है उसे संख्यात, उसके आगेकी जो संख्या अवधिज्ञानकी विषयभूत है उसे असंख्यात, तथा इससे आगेकी जो संख्या एक मात्र केवलज्ञानकी विषयभूत है उसे अनन्त समझना चाहिये।
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ।। ५४ ।।
कालकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ५४ ॥
खेत्तेण पदरस्स बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपडिभागण ।। ५५ ।।
क्षेत्रकी अपेक्षा जगप्रतरके दो सौ छप्पन अंगुलोंके वर्गरूप प्रतिभागसे देव मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण प्राप्त होता है ॥ ५५ ॥
__अभिप्राय यह है कि दो सौ छप्पन सूच्यंगुलके वर्गरूप भागहारसे जगप्रतरको भाजित करनेपर जो लब्ध हो उतना क्षेत्रकी अपेक्षा देवराशिका प्रमाण जानना चाहिये ।
सासणसम्माइहि-सम्मामिच्छाइहि असंजदसम्माइट्ठीणं ओघ ॥ ५६ ।।
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