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६८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ६५ जितनी देवगतिप्रतिपन्न सामान्य देवोंकी संख्या कही गई है उतने ज्योतिषी देव हैं ॥६५॥
सूत्रामें — जोइसियदेवा ' इस प्रकार मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानोंकी विशेषतासे रहित जो सामान्य ज्योतिषी देवोंका ग्रहण किया गया है उससे मिथ्यादृष्टि आदि चारों गुणस्थानवर्ती ज्योतिषी देवोंकी संख्याकी प्ररूपणा सामान्य देवगति सम्बन्धी संख्याप्ररूपणाके समान है, ऐसा समझना चाहिये । यहांपर जो ज्योतिषी देवोंकी संख्या सामान्य देवोंके समान बतलायी गई है वह सामान्यसे बतलायी है । विशेषकी अपेक्षा दो सौ छप्पन्न अंगुलोंके वर्गका जगप्रतरमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतना प्रमाण ज्योतिषी देवोंका है और उनसे कुछ ही अधिक ( संख्यातगुणी ) सामान्य देवराशि है, इतना विशेष समझना चाहिये ।
सोहम्मीसाणकप्पवासियदेवेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया? असंखेज्जा।
सौधर्म और ऐशान कल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ६६॥
असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ६७ ॥
कालकी अपेक्षा सौधर्म और ऐशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत होते हैं ॥ ६७ ॥
खेत्तेण असंखेज्जाओ सेढीओ पदरस्स असंखेज्जदिभागो। तासि सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलविदियवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥ ६८ ।।
क्षेत्रकी अपेक्षा सौधर्म और ऐशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणी प्रमाण हैं। उन असंख्यात जगश्रेणियोंका प्रमाण जगप्रतरके असंख्यातवें भाग है तथा उनकी विष्कम्भसूची सूच्यंगुलके द्वितीय वर्गमूलको उसके तृतीय वर्गमूलसे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी है ॥६८॥
सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी ओघं ।। ६९ ॥
सौधर्म-ऐशान कल्पवासी सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव सामान्य प्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ ६९ ॥
सणक्कुमारप्पहुडि जाव सदार-सहस्सारकप्पवासियदेवेसु जहा सत्तमाए पुढवीए णेरइयाणं भंगो ॥ ७० ॥
__ जिस प्रकार सातवीं पृथिवीमें नारकियोंके द्रव्यप्रमाणकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार सनत्कुमारसे लेकर शतार और सहस्रार तक कल्पवासी देवोंमें मिथ्यादृष्टि देवोंकी प्ररूपणा है ॥७० ॥
आणद-पाणद जाव णवगेवेज्जविमाणवासियदेवेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति दव्वपमाणेण केवडिया ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण ।। ७१ ॥
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