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१, १, १४३] संतपरूवणाए लेस्सामग्गणा
[ ४५ कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीव एकेन्द्रियसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं ॥ १३७ ॥
अब तेजोलेश्या और पद्मलेश्याके गुणस्थान बतलानेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सण्णिमिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदा त्ति ॥ १३८ ॥
तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं ॥ १३८ ॥
अब शुक्ललेश्याके गुणस्थान बतलाते हैं--- सुक्कलेस्सिया सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ॥ १३९ ॥ शुक्ललेश्यावाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं ॥१३९॥
यहां शंका हो सकती है कि जो जीव कषायसे रहित हो चुके हैं उनके शुक्ललेश्या कैसे सम्भव है ? इसका उत्तर यह है कि जिन जीवोंकी कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई है उनमें कर्मलेपका कारणभूत चूंकि योग पाया जाता है, इस अपेक्षासे उनके शुक्ललेश्याका सद्भाव माना गया है।
अब लेश्यारहित जीवोंका निरूपण करते हैंतेण परमलेस्सिया ॥ १४० ॥ तेरहवें गुणस्थानके आगे सभी जीव लेश्यारहित होते हैं ॥ १४० ॥
इसका कारण यह है कि वहांपर बन्धके कारणभूत योग और कषाय दोनोंका ही अभाव हो चुका है।
अब भव्यमार्गणाके द्वारा जीवोंके अस्तित्वका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंभवियाणुवादेण अस्थि भवसिद्धिया अभवसिद्धिया ॥ १४१ ॥ भव्यमार्गणाके अनुवादसे भव्यसिद्ध और अभव्यसिद्ध जीव होते हैं ॥१४१॥
जिन जीवोंके भविष्यमें अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धि होनेवाली है उन्हें भव्यसिद्ध ( भव्य) __ कहते हैं तथा जो उस अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धिकी योग्यतासे रहित हैं उन्हें अभव्य समझना चाहिये ।
अब भव्य जीवोंके गुणस्थान कहे जाते हैंभवसिद्धिया एइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ।। १४२॥ भव्यसिद्ध जीव एकेन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं ॥ १४२ ॥ अब अभव्य जीवोंके गुणस्थानका निरूपण करते हैंअभवसिद्धिया एइंदियप्पहुडि जाव सण्णिमिच्छाइट्टि त्ति ॥ १४३ ॥
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