________________
१, १, १३६ ]
संतपरूवणार लेस्सामग्गणा
[ ४३
आत्मसंवेदनमें ‘ मैं रूपके अवलोकनमें समर्थ हूं ' इस प्रकारके उपयोगको चक्षुदर्शन कहते हैं । चक्षु इन्द्रियको छोड़कर शेष चार इन्द्रियों और मनसे होनेवाले दर्शनको अचक्षुदर्शन कहते हैं । अवधिज्ञानके पूर्व होनेवाले दर्शनको अवधिदर्शन कहते हैं । प्रतिपक्षसे रहित जो दर्शन होता है उसे केवलदर्शन कहते हैं ।
अब चक्षुदर्शन सम्बन्धी गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं --- चक्खुदंसणी चउरिंदिय पहुडि जाव खीणकसाय- वीयराय-छदुमत्था ति ॥ १३२॥ चक्षुदर्शनी जीव चतुरिन्द्रियसे लेकर क्षीणकषाय-छमस्थ - वीतराग गुणस्थान तक होते हैं ॥
अब अचक्षुदर्शनके स्वामीको बतलाने के लिये उत्तरसूत्र कहते हैंअचक्खुदंसणी एइंदिय पहुडि जाव खीणकसाय - वीयराय-छदुमत्था त्ति ॥ १३३ ॥ अचक्षुदर्शनी जीव एकेन्द्रिय से लेकर क्षीणकपाय - वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं । अब अवधिदर्शन सम्बन्धी गुणस्थानोंका प्रतिपादन करने के लिये उत्तरसूत्र कहते हैंओधिदंसणी असंजद सम्माइट्ठिप्प हुडि जाव खीणकसाय- वीयराग छदुमत्था ति ॥ अवधिदर्शनी जीव असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक
होते हैं ॥ १३४ ॥
अब केवलदर्शन के स्वामीका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंकेवलसणी तिसु ाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥ १३५ ॥ केवलदर्शनी जीव सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानोंमें होते हैं ॥ अब श्यामार्गणाके द्वारा जीवोंका अन्वेषण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंलेस्सावादे अस्थि किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुक्कलेस्सिया अलेस्सिया चेदि ॥ १३६ ॥
लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्यावाले तथा अलेश्यावाले जीव होते हैं ॥ १३६ ॥
कषायसे अनुरंजित जो योगोंकी प्रवृत्ति होती है उसे लेश्या कहते हैं । ' कर्मस्कन्धैः आत्मानं लिम्पति इति लेश्या ' इस निरुक्तिके अनुसार जो कर्मस्कन्धोंसे आत्माको लिप्त करती है वह लेश्या है, यह ' लेश्या ' शब्दका निरुक्त्यर्थ है । यहां कषाय और योग इनकी जात्यन्तरखरूप मिश्र अवस्थाको लेश्या कहनेके कारण इस मार्गणाको कषाय और योग मार्गणासे पृथक् समझना चाहिये । इतना विशेष है कि कषायसे अनुरंजित ही योगप्रवृत्तिको लेश्या नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेपर सयोगिकेवली के लेश्यारहित होनेका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, कारण कि आगममें सयोगिकेवलीके योगका सद्भाव होनेसे शुक्ललेश्या निर्दिष्ट की गई है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org