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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, १२६
अब परिहारशुद्धिसंयमके गुणस्थानोंका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंपरिहार- सुद्धिसंजदा दोसु ट्ठाणेसु पमत्तसंजदट्ठाण अपमत्तसंजदट्ठाणे ॥ १२६ ॥ परिहार-शुद्धिसंयत प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में होते हैं ॥ १२६ ॥ अब सूक्ष्मसांपराय संयतोंके गुणस्थानका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंसुहुमसांपराइय सुद्धिसंजदा एकम्हि चेव सुहुम-सांपराइयसुद्धि-संजदद्वाणे || सूक्ष्म-सांपरायिक-शुद्धिसंयत जीव एक मात्र सूक्ष्म-सांपरायिक शुद्धिसंयत गुणस्थान में पाये
जाते हैं ॥ १२७ ॥
अब चतुर्थ संयमके गुणस्थानोंके प्रतिपादनके लिये सूत्र कहते हैं
जहाक्खाद-विहार- सुद्धिसंजदा चदुसु ट्ठाणेसु उवसंतकसाय- वीयराय-छदुमत्था खीणकसाय- वीयरायछदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति || १२८ ॥
यथाख्यात-विहार-शुद्धिसंयत जीव उपशान्तकषाय- वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय- वीतरागछद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानोंमें होते हैं ॥ १२८ ॥
संयतासंयतोंके गुणस्थानका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं-संजदासंजदा एकहि चेय संजदासंजदट्ठाणे ॥ १२९ ॥
संयतासंयत जीव एक संयतासंयत गुणस्थान में ही होते हैं ॥ १२९ ॥ अब असंयत गुणस्थानोंका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंअसंजदा एइंदिय पहुड जाव असंजदसम्माट्ठिति ॥ १३० ॥ असंयत जीव एकेन्द्रियसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं ॥ १३० ॥
यद्यपि कोई कोई मिध्यादृष्टि जीव भी व्रताचरण करते हुए देखे जाते हैं, पर वे वास्तव में संयत नहीं हैं; क्योंकि, सम्यग्दर्शनके विना संयमकी सम्भावना नहीं है ।
अब दर्शनमार्गणाके द्वारा जीवोंके अस्तित्व के प्रतिपादनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैंदंसणाणुवादेण अत्थि चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी अधिदंसणी केवलदंसणी
चेदि ॥ १३१ ॥
दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीव होते हैं ।। १३१ ॥
जिसके द्वारा देखा जाता है वह दर्शन कहलाता है । अथवा ज्ञानकी उत्पत्ति में कारणभूत जो प्रयत्न होता है उससे सम्बद्ध आत्मविषयक उपयोगको दर्शन कहते हैं । वह चार प्रकारका हैचक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । चाक्षुष ज्ञानके उत्पादक प्रयत्नसे सम्बद्ध
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