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४४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, १३६ कषायका उदय छह प्रकारका होता है- तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम । इस छह प्रकारके कषायोदयसे उत्पन्न हुई लेश्या भी परिपाटीक्रमसे छह प्रकारकी होती हैकृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । इन लेश्याओंसे संयुक्त जीवोंकी पहिचान इस प्रकारसे होती है
१. जो तीव्र क्रोध करनेवाला हो, वैरको न छोडे, लडना जिसका खभाव हो, धर्म और दयासे रहित हो, दुष्ट हो, किसीके वशमें नहीं होता हो, खच्छंद हो, काम करने में मन्द हो, वर्तमान . कार्य करनेमें विवेक रहित हो, कलाचातुर्यसे रहित हो, पांच इन्द्रियोंके विषयोंमें लम्पट हो, मानी हो, मायावी हो, आलसी हो, तथा डरपोक हो, ऐसे जीवको कृष्णलेश्यावाला जानना चाहिये ।
२. जो अतिशय निद्रालु हो, दूसरोंके ठगनेमें दक्ष हो, और धन-धान्यके विषयमें तीव्र लालसा रखता हो उसे नीललेश्यावाला जानना चाहिये ।
३. जो दूसरेके ऊपर क्रोध किया करता है, दूसरोंकी निन्दा करता है, अनेक प्रकारसे दूसरोंको दुःख देता है, उन्हें दोष लगाता है, अत्यधिक शोक और भयसे संतप्त रहता है, दूसरोंका उत्कर्ष सहन नहीं करता है, दूसरोंका तिरस्कार करता है, अपनी अनेक प्रकारसे प्रशंसा करता है, दूसरेके ऊपर विश्वास नहीं करता है, अपने समान दूसरेको भी मानता है, स्तुति करनेवालेपर संतुष्ट हो जाता है, अपनी और दूसरेकी हानि व वृद्धिको नहीं जानता है, युद्धमें मरनेकी अभिलाषा करता है, स्तुति करनेवालेको बहुत धन देता है, तथा कार्य-अकार्यकी कुछ भी गणना नहीं करता है; उसे कापोतलेश्यावाला जानना चाहिये ।
४. जो कार्य-अकार्य और सेव्य-असेव्यको जानता है, सब विषयमें समदर्शी रहता है, दया और दानमें तत्पर रहता है; तथा मन, वचन व कायसे कोमलपरिणामी होता है; उसे पीतलेश्यावाला जानना चाहिये ।
५. जो त्यागी है, भद्रपरिणामी है, निरन्तर कार्य करनेमें उद्युक्त रहता है, जो अनेक प्रकारके कष्टप्रद उपसर्गोको शान्तिसे सहता है, और साधु तथा गुरु जनोंकी पूजामें रत रहता है; उसे पद्मलेश्यावाला जानना चाहिये ।
६. जो पक्षपात नहीं करता है निदान नहीं बांधता है, सबके साथ समान व्यवहार करता है, तथा इष्ट और अनिष्ट पदार्थोके विषयमें राग और द्वेषसे रहित होता है; उसे शुक्ललेश्यावाला जानना चाहिये।
जो इन छह लेश्याओंसे रहित हो चुके हैं उन्हें लेश्यारहित (अलेश्य ). जानना चाहिये । अब लेश्याओंके गुणस्थान बतलानेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया एइंदियप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि ति ॥ १३७ ॥
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