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४०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १२० जो पदार्थ जिस रूपसे अवस्थित है उसके उसी प्रकारसे जाननेको ज्ञान और उसके विपरीत जाननेको अज्ञान कहा जाता है। जो न तो ज्ञान है और न अज्ञान भी है ऐसे जात्यन्तररूप ज्ञानका नाम मिश्रज्ञान है।
अब ज्ञानोंके गुणस्थानोंकी सीमाका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
आभिणियोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं असंजदसम्माइटिप्पहुडि जाव खीणकसाय-वीदराग-छदुमत्था त्ति ।। १२० ॥
आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं ॥ १२० ॥
अब मनःपर्यय ज्ञानके स्वामीका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
मणपज्जवणाणी पमत्तसंजदप्पहुडि जाव खीणकसाय-चीदराग-छदुमत्था त्ति ॥१२१ ॥
मनःपर्ययज्ञानी प्रमत्तसंयतसे लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ ( बारहवें) गुणस्थान तक होते हैं ॥ १२१ ॥
___ यहां पर्याय और पर्यायीमें भेदकी विवक्षा न करके सूत्रमें मनःपर्ययज्ञानका ही मनःपर्ययज्ञानीरूपसे निर्देश किया गया है । देशविरत आदि अधस्तन गुणस्थानवी जीवोंके संयमका अभाव होनेसे उनके यह मनःपर्ययज्ञान नहीं होता है।
अब केवलज्ञानके स्वामियोंके गुणस्थानको बतलानेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंकेवलणाणी तिसु ठाणेसु सजोगिकेवली अजोगिकेवली सिद्धा चेदि ॥ १२२ ॥ केवलज्ञानी सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानोंमें होते हैं ॥१२२॥ अब संयममार्गणाका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
संजमाणुवादेण अस्थि संजदा सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइय-सुद्धिसंजदा जहाक्खाद-विहार-सुद्धिसंजदा संजदसंजदा असंजदा चेदि ॥१२३ ॥
संयममार्गणाके अनुवादसे संयत, सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसापराय-शुद्धिसंयत और यथाख्यात-विहार-शुद्धिसंयत ये पांच प्रकारके संयत तथा संयतासंयत और असंयत जीव होते हैं ॥ १२३ ॥
जो · सं' अर्थात् समीचीन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ यत' अर्थात् बहिरंग और अंतरंग आस्रवोंसे विरत हैं उन्हें संयत कहते हैं। मैं सर्व प्रकारके सावद्ययोगसे विरत हूं' इस प्रकार द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा समस्त सावद्ययोगके त्यागका नाम सामायिक शुद्धि-संयम है।
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