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३८] छक्खंडागमे जीवठ्ठाणं
[१, १, ११३ लोभकसाई एइंदियप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा त्ति ॥ ११३ ॥
लोभकषायसे युक्त जीव एकेन्द्रियोंसे लेकर सूक्ष्मसांपराय-शुद्धिसंयत गुणस्थान तक होते हैं ॥ ११३ ॥
लोभकषायकी अन्तिम मर्यादा सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान है । कारण यह है कि शेष कषायोंके उदयके नष्ट हो जानेपर उसी समय लोभ कषायका विनाश नहीं होता है ।।
अब कषायरहित जीवोंसे उपलक्षित गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
अकसाई चदुसु हाणेसु अस्थि उवसंतकसाय-बीयराय-छदुमत्था खीणकसायवीयराय-छदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति ॥ ११४ ।।
कषायरहित जीव उपशान्तकषाय-वीतराग-छद्मरथ, क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ, सयोगि- . केवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानोंमें होते हैं ।। ११४ ॥
उपशान्तकषाय गुणस्थानमें यद्यपि द्रव्य कषायका सद्भाव है, फिर भी वहां जो अकषायी जीवोंका अस्तित्व बतलाया है वह कषायके उदयके अभावकी अपेक्षा बतलाया है। ___ अब ज्ञानमार्गणाके द्वारा जीवोंका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं--
णाणाणुवादेण अस्थि मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओहिणाणी मणपञ्जवणाणी केवलणाणी चेदि ।। ११५ ।।
ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी जीव होते हैं ॥ ११५॥
जो जानता है उसे ज्ञान कहते हैं । अथवा जिसके द्वारा यह आत्मा जानता है, जानता था या जानेगा ऐसे ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे अथवा उसके संपूर्ण क्षयसे उत्पन्न हुए आत्मपरिणामको ज्ञान कहते हैं। वह ज्ञान दो प्रकारका है- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनमें परोक्षके भी दो भेद हैं- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । प्रत्यक्षके तीन भेद हैं-- अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान । दूसरेके उपदेश विना विष, यन्त्र, कूट, पंजर तथा बन्धादिके विषयमे जो बुद्धि प्रवृत्त होती है उसे मति-अज्ञान कहते हैं। चौरशास्त्र और हिंसाशास्त्र आदिके अयोग्य उपदेशोंको श्रुत-अज्ञान कहते हैं । कर्मका कारणभूत जो विपरीत अवधिज्ञान होता है उसे विभंगज्ञान कहा जाता है । इन्द्रियों और मनकी सहायतासे जो पदार्थका अवबोध होता है उसे आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं । उसके पांच इन्द्रियों व मन (छह), बहु आदिक बारह पदार्थ और अवग्रह आदि चारकी अपेक्षा तीन सौ छत्तीस ( व्यंजनावग्रह- ४४१२=४८, अर्थावग्रह - ६४१२४४=२८८; २८८+४८= ३३६ ) भेद हो जाते हैं । मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थके सम्बन्धसे जो दूसरे पदार्थका ज्ञान होता है उसको श्रुतज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान नियमसे मतिज्ञानपूर्वक होता है। इसके अक्षरात्मक और
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