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संतपरूवणाए कसायमग्गणा
१, १, ११२]
[ ३७ तिर्यंच असंज्ञी पंचेन्द्रियसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदोंसे युक्त होते हैं ॥ १०७ ॥
अब मनुष्यगतिमें वेदका विशेष प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं--- मणुस्सा तिवेदा मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ॥ १०८ ॥
मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरणके सवेद भाग पर्यंत तीनों वेदवाले होते हैं ॥ १०८ ॥
अब तीनों वेदोंसे रहित मनुष्योंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंतेण परमवगदवेदा चेदि ।। १०९॥
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके सवेद भागसे आगे सभी गुणस्थानवाले मनुष्य वेदसे रहित होते हैं ॥ १०९॥
अब देवगतिमें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंदेवा चदुसु हाणेसु दुवेदा इत्थिवेदा पुरिसवेदा ।। ११० ॥ देव चारों गुणस्थानों में स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवाले होते हैं ॥ ११०॥ .
देवगतिमें चार ही गुणस्थान होते हैं। सौधर्म-ऐशान स्वर्ग तकके देव स्त्री और पुरुष दो वेदवाले होते हैं तथा आगे सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पसे लेकर ऊपरके सब देव पुरुषवेदीही होते हैं।
अब कषायमार्गणाके आश्रयसे गुणस्थानोंका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
कसायाणुवादेण अत्थि कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अकसाई चेदि ॥ १११ ॥
कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी ( कषायरहित ) जीव होते हैं ॥ १११ ॥
अब कषायमार्गणामें विशेष प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंकोधकसाई माणकसाई मायकसाई एइंदियप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ॥११२॥
क्रोधकषायी, मानकषायी और मायाकषायी जीव एकेन्द्रियसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं ॥ ११२ ॥
- यहां अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवाले जीवोंके भी जो कषायका अस्तित्व बतलाया गया है वह अव्यक्त कषायकी अपेक्षा जानना चाहिये । कारण कि वहां व्यक्त कपाय सम्भव नहीं है।
अब लोभकषायका विशेष प्ररूपण करने के लिये उत्तरसूत्र कहते हैं---
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