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३६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १०२ होता है । इस प्रकारसे जो जीव अपनेको स्त्रीरूप अनुभव करता है उसे स्त्रीवेदी कहते हैं । 'पुरुगुणेषु पुरुभोगेषु च शेते इति पुरुषः' इस निरुक्तिके अनुसार जो पुरु ( उत्कृष्ट ) गुणोंमें और भोगोंमें शयन करता है अर्थात् सोता है उसे पुरुष कहते हैं । अथवा, जो स्त्रीकी इच्छा किया करता है उसे पुरुष और उसका अनुभव करनेवाले जीवको पुरुषवेदी कहते हैं। जो न स्त्री है, न पुरुष है उसे नपुंसक कहते हैं । अथवा जो स्त्री और पुरुष दोनोंकी इच्छा करता है उसे नपुंसक
और उसका अनुभव करनेवाले जीवको नपुंसकवेदी कहते हैं। जिन जीवोंके उक्त तीनों प्रकारके वेदोंसे उत्पन्न होनेवाला संताप दूर हो गया है वे अपगतवेदी कहे जाते हैं।
___ अब वेदोंसे युक्त जीवोंके सम्भव गुणस्थान आदिका प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
इत्थिवेदा पुरिसवेदा असण्णिमिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ॥ १०२॥ .
स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले जीव असंज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं ॥ १०२ ॥
अब नपुंसकवेदियोंके सत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंणवंसयवेदा एइंदियप्पहाडि जाव अणियदि ति ॥ १०३ ॥ नपुंसकवेदवाले जीव एकेन्द्रियसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं ॥१०३।। अब वेदरहित जीवोंका प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंतेण परमवगदवेदा चेदि ॥ १०४ ॥ अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके सवेद भागके आगे सर्व जीव वेदरहित ही होते हैं ॥१०४॥
यहां जो नौवें गुणस्थानके सवेद भागसे आगे वेदका अभाव बतलाया गया है वह भावसमझना चाहिये, न कि द्रव्यवेदका; क्योंकि, द्रव्यवेद तो आगे भी बना रहता है।
अब मार्गणाओंमें वेदका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं -- णेरइया चदुसु हाणेसु सुद्धा णqसयवेदा ॥ १०५ ।। नारकी जीव चारों गुणस्थानोंमें शुद्ध ( केवल ) नपुंसकवेदी होते हैं ॥ १०५ ॥ तिर्यंचगतिमें वेदोंका निरूपण करनेकेलिये उत्तरसूत्र कहते हैं--- तिरिक्खा सुद्धा णqसगवेदा एइंदियप्पहुडि जाव चउरिंदिया ति ॥ १०६ ।। तिर्यंचोंमें एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर चतुरिन्द्रिय पर्यंत शुद्ध नपुंसकवेदी होते हैं ॥१०६॥ शेष तिर्यंचोंके कितने वेद होते हैं, इस आशंकाको दूर करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंतिरिक्खा तिवेदा असण्णिपंचिंदियप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ॥ १०७ ॥
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