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१, १, १०१]
संतपरूवणाए वेदमग्गणा
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अब पूर्वोक्त देव और देवियोंकी अपर्याप्त अवस्थामें असम्भव गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं-----
सम्माभिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइटिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता णियमा पज्जत्तियाओ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पूर्वोक्त देव नियमसे पर्याप्त होते हैं तथा पूर्वोक्त देवियां भी नियमसे पर्याप्त होती हैं ॥ ९७ ॥
इसका कारण यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वके साथ किसी भी जीवका मरण नहीं होता तथा सम्यग्दृष्टि जीवोंकी मरकर उक्त देव और देवियोंमें उत्पत्तिकी सम्भावना भी नहीं है ।
अब शेष देवोंमें गुणस्थानोंका अस्तित्व बतलाने के लिये उत्तरसूत्र कहते हैं--
सोधम्मीसाणप्पहुडि जाव उवरिमउवरिम गेवज्जं ति विमाणवासियदेवेसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्टि असंजदसम्माइडिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।।९८॥
सौधर्म और ऐशानसे लेकर उपरिमउपरिम प्रैवेयक पर्यंत विमानवासी देव मिथ्यादृष्टि, सासाइनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कदाचित पर्याप्त भी होते हैं और कदाचित अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ९८ ॥
अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके स्वरूपका निर्णय करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैंसम्मामिच्छाइडिहाणे णियमा पज्जत्ता ॥ ९९ ॥ उक्त देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्त ही होते हैं ॥ ९९ ॥ अब शेष देवोंमें गुणस्थानोंके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
अणुदिस-अगुत्तरविजय-वइजयंत-जयंतावराजित-सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा असंजदसम्माइट्टिटाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।। १००॥
नौ अनुदिशोंमें तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तरविमानोंमें रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कदाचित् पर्याप्त भी होते हैं और कदाचित् अपर्याप्त भी होते हैं । १०० ॥
अब वेदमार्गणाकी अपेक्षा गुणस्थानोंका निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंवेदाणुवादेण अस्थि इत्यिवेदा पुरिसवेदा णQमयवेदा अवगदवेदा चेदि।।१०१॥
वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी और अपगतवेदी जीव होते हैं ॥ १०१ ॥
दोवैरात्मानं परं च स्तृणाति छादयतीति स्त्री ' इस निरुक्तिके अनुसार जो दोषोंसे स्वयं अपनेको और दूसरेको आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं । स्त्रीरूप जो वेद है उसे स्त्रीवेद कहते हैं । अथवा, जो पुरुषकी इच्छा किया करती है उसे स्त्री कहते हैं । वेदका अर्थ अनुभवन
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