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संतपरूवणाए जोगमग्गणा
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पंचिदियतिरिक्ख जोणिणीसु मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ति - याओ सिया अपज्जत्तियाओ || ८७ ॥
योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान में कदाचित् पर्याप्त भी होते हैं और कदाचित् अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ८७ ॥
सासादनगुणस्थानवाला जीव मरकर नारकियोंमें तो उत्पन्न नहीं होता है, किन्तु उसका तिर्यंचोंमें उत्पन्न होना सम्भव है; अतएव उसके अपर्याप्त अवस्थामें भी सासादन गुणस्थान रह सकता है । अब योनिमती तिर्यंचोंमें सम्भव शेष गुणस्थानोंके स्वरूपका कथन करने के लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
१, १, ९१ ]
सम्मामिच्छाट्ठि असंजद सम्माइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ ||८८ योनिमती तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्त ही होते हैं ॥ ८८ ॥
इसका कारण यह है कि उपर्युक्त गुणस्थानों में मरकर कोई भी जीव योनिमती तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होता है । यहां तिर्यंच अपर्याप्तों में गुणस्थानोंकी जो प्ररूपणा नहीं की गई है उसका कारण यह है कि उनमें एक मिथ्यात्व गुणस्थानको छोड़कर दूसरे किसी भी गुणस्थानका सद्भाव नहीं पाया जाता है ।
अब मनुष्यगतिमें प्रकृत प्ररूपणा करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
मणुस्सा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि - असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जता ॥ ८९ ॥
मनुष्य मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें कदाचित् पर्याप्त होते हैं और कदाचित् अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ८९ ॥
यद्यपि आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवाले प्रमत्तसंयतोंके उक्त शरीर सम्बन्धी छहों पर्याप्तियोंके अपूर्ण रहने तक उसकी अपेक्षासे अपर्याप्तपना भी सम्भव है, तो भी यहां द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे उनको आहारकशरीर सम्बन्धी छह पर्याप्तियोंके पूर्ण नहीं होनेपर भी पर्याप्तोंमें ग्रहण किया गया है । यही बात समुद्घातगत केवलीके सम्बन्धमें भी जाननी चाहिये ।
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अब मनुष्योंके भेदोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
एवं मणुस्सपज्जत्ता ॥ ९१ ॥
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अब मनुष्योंमें शेष गुणस्थानोंके सद्भावको बतलानेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं--- सम्मामिच्छाइड्डि-संजदासंजद-संजदट्ठाणे नियमा पज्जता ॥ ९० ॥ मनुष्य सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियमसे पर्याप्त होते हैं ॥ ९० ॥
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