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छक्खंडागमे जीवाणं
मनुष्य पर्याप्तोंकी प्ररूपणा सामान्य मनुष्योंके समान है ॥ ९१ ॥
अब मनुष्यनियोंमें गुणस्थानोंका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंमणु सिणीसु मिच्छाइट्ठि- सासणसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ || ९२ ॥
३४ ]
मनुष्यनी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कदाचित् पर्याप्त भी होती हैं और कदाचित् अपर्याप्त भी होती हैं ॥ ९२ ॥
सजद
अब मनुष्यनियोंमें शेष गुणस्थानोंके स्पष्टीकरण के लिये उत्तरसूत्र कहते हैंसम्मामिच्छाइट्ठि-असंजद सम्माइट्ठि- संजदासंजदाणे णियमा पज्जत्तियाओ ॥ मनुष्यनी सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्त ही होती हैं ॥ ९३ ॥
[ १, १, ९१
अपज्जत्ता ।। ९४ ॥
अब देवगतिमें गुणस्थानोंका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं देवामिच्छाट्ठि- सासणसम्माइट्ठि असंजद सम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया
देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कदाचित् पर्याप्त भी होते हैं और कदाचित् अपर्याप्त भी होते हैं ॥ ९४ ॥
उक्त देवगतिमें शेष गुणस्थानोंकी सत्ताके प्रतिपादनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैंसम्मामिच्छाट्ठिट्ठाणे णियमा पज्जत्ता ।। ९५ ।।
देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें नियमसे पर्याप्त ही होते हैं ॥ ९५ ॥
इसका कारण यह है कि तीसरे गुणस्थानके साथ किसी भी जीवका मरण नहीं होता है तथा अपर्याप्तकालमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्पत्ति नहीं होती है ।
अब देवगतिमें विशेष भेदोंके आश्रयसे प्ररूपणा करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंभवणवासिय वाणवेंतर - जोइसियदेवा देवीओ सोधम्मीसाणकप्पवासियदवीओ चमिच्छाइट्टि - सासणसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ।। ९६ ।।
भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देव व इनकी देवियां तथा सौधर्म और ऐशान कल्पवासिनी देत्रियां, ये सब मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कदाचित् पर्याप्त भी होते हैं और कदाचित् अपर्याप्त भी होते हैं ।। ९६॥
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चूंकि इन दोनों गुणस्थानोंसे युक्त जीवोंकी उपर्युक्त देव और देवियोंमें उत्पत्ति होती है, अतएव उनके ये दोनों गुणस्थान पर्याप्त और अपर्याप्त इन दोनों ही अवस्थाओंमें सम्भव हैं ।
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