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प्रस्तावना
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पाठकगण दोनोंके विषय प्रतिपादनकी शाब्दिक और आर्थिक समताका स्वयं ही अनुभव करेंगे ।
इस प्रकारसे जीवसमासमें चौदह गुणस्थानोंकी संख्याको, तथा गति आदि तीन मार्गणाओंकी संख्याको बतलाकर तथा सान्तरमार्गणाओं आदि का निर्देश करके कह दिया गया है किएवं जे जे भावा जहिं जहिं हुंति पंचसु गई ।
ते ते अणुमग्गित्ता दव्वपमाणं नए धीरा ॥ १६६ ॥
अर्थात् मैंने इन कुछ मार्गणाओं में द्रव्यप्रमाणका वर्णन किया है, तदनुसार पांचों ही गतियोंमें सम्भव शेष मार्गणास्थानोंका द्रव्यप्रमाण धीर वीर पुरुष स्वयं ही अनुमार्गण करके ज्ञात करें । ऐसा प्रतीत होता है कि इस संकेतको लक्ष्यमें रखकर ही षट्खण्डागमकारने शेष ११ मार्गणाओंके द्रव्यप्रमाणका वर्णन पुरे ९० सूत्रों में किया है ।
क्षेत्रप्ररूपणा करते हुए जीवसमासमें सबसे पहले चारों गतियोंके जीवोंके शरीरकी अवगाहना बहुत विस्तारसे बताई गई है जो प्रकरणको देखते हुए वहां बहुत आवश्यक है । अन्तमें तीन गाथाओं केद्वारा सभी गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंके जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा कर दी गई है । गुणस्थानोंमें क्षेत्रप्ररूपणा करनेवाली गाथाके साथ षट्खण्डागमके सूत्रोंकी समानता देखिये -
जीवसमास-गाथा
मिच्छा उ सव्वलोए असंखेभागे य सेसया हुंति । केवलि असंखभागे भागे व सव्वलो वा ॥ १७८ ॥
षट्खण्डागम-सूत्र
ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे || २ || सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जा अजोगिकेवलित्ति केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए ॥ ३ ॥ सजोगिकेवली केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए, असंखेज्जेसु वा भागेसु, सव्वलोगे वा ॥ ४ ॥
( षट्खं. पृ. ८६-८८ )
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स्पर्शनप्ररूपणा करते हुए जीवसमास में पहले स्वस्थान, समुद्घात और उपपादपदका निर्देश कर क्षेत्र और स्पर्शनका भेद बतलाया गया है । तत्पश्चात् किस द्रव्यका कितने क्षेत्रमें अवगाह है, यह बतलाकर अनन्त आकाशके मध्यलोकका आकार सुप्रतिष्ठितसंस्थान बताते हुए तीनों लोकोंके पृथक् आकार बताकर उसकी लम्बाई चौड़ाई बताई है । पुनः मध्यलोक द्वीप-समुद्रोंके संस्थान-संनिवेश आदिको बताकर ऊर्ध्व और अधो लोककी क्षेत्रसम्बन्धी घटा-बढ़ाका वर्णन किया गया है । पुनः समुद्घातके सातों भेद बताकर किस गतिमें कितने समुद्धात होते हैं, यह बताया गया है । इस प्रकार सभी आवश्यक जानकारी देनेके पश्चात् गुणस्थानों और
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