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१, १, ६५] संतपरूवणाए जोगमग्गणा
[२७ ___ कायजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो एइंदियप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ॥ ६१ ॥
सामान्यसे काययोग, औदारिककाययोग और औदारिकमिश्रकाययोग एकेन्द्रियसे लेकर सयोगिकेवली तक होते हैं ॥ ६१ ॥
यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि औदारिकमिश्रकाययोग चार अपर्याप्त गुणस्थानोंमें ही होता है।
अब वैक्रियिककाययोगके स्वामीका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं---
वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकाजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्टि ति ॥ ६२ ॥
वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक होते हैं ॥ ६२ ॥
यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें जीव नियमसे पर्याप्तक ही होते हैं और वैक्रियिकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके ही होता है।
अब आहारककाययोगके स्वामीका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं ..... आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि चेव पमत्तसंजदहाणे ॥६३।। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग एक प्रमत्त गुणस्थानमें ही होते हैं ॥६३॥ अब कार्मणकाययोगके आधारभूत जीवोंके प्रतिपादनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं-- कम्मइयकायजोगो एइंदियप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि ति ।। ६४ ॥ कार्मणकाययोग एकेन्द्रियोंसे लेकर सजोगिकेवली तक होता है । ६४ ॥
यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि पर्याप्तक दशामें ही संभव ऐसे संयतासंयतादि गुणस्थानोंमें कार्मणकाययोग नहीं पाया जाता है । पर्याप्त अवस्थामें वह समुद्घातके समय ही पाया जाता है।
आगे संमिलित रूपमें तीनों योगोंके स्वामीका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
मणजोगो वचिजोगो कायजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।। ६५॥
क्षयोपशमकी अपेक्षा एकरूपताको प्राप्त हुए मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये तीनों योग संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली तक होते हैं । ६५॥
अब द्विसंयोगी योगोंके प्रतिपादनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं---
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