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छव खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १, ७७
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शरीरपर्याप्तिके पूर्ण होनेपर जीव पर्याप्तक कहे जाते हैं । पूर्णताको प्राप्त हुए औदारिकशरीरके आलम्बन द्वारा उत्पन्न हुए जीवप्रदेशपरिस्पन्दनसे जो योग होता है उसे औदारिककाययोग कहते हैं। कार्मण और औदारिक शरीरके स्कन्धोंके निमित्तसे जीवके प्रदेशोंमें उत्पन्न हुए परिस्पन्दनसे जो योग होता है उसे औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं । वह औदारिकशरीरकी अपर्याप्त अवस्थामें होता है । यद्यपि कार्मणशरीर पर्याप्त अवस्थामें भी विद्यमान रहता है, फिर भी वह चूंकि जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दनका कारण नहीं है, अतएव पर्याप्त अवस्था में औदारिकमिश्रकाययोग नहीं होता है ।
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अब वैक्रियिककाययोगके सद्भावका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंdarकायजोगो पज्जत्ताणं, वेउव्वियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ॥७७॥ पर्याप्त देव- नारकियों के वैक्रियिककाययोग और अपर्याप्तोंके वैक्रियिकमिश्रकाय योग होता है ॥ ७७ ॥
अब आहारकाययोगका आधार बतलानेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
आहारकायजोगो पज्जत्ताणं, आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ॥ ७८ ॥ आहारकाययोग पर्याप्तकोंके और आहारकमिश्रकाययोग अपर्याप्तकोंके होता है ॥ ७८ ॥ यद्यपि आहारकशरीर निर्माण करनेवाले साधुका औदारिकशरीर पूर्ण होता है, फिर भी उसके जो आहारकशरीर उत्पन्न होता है वह जब तक पूर्ण नहीं होता है तब तक उसको उत्पन्न करनेवाले प्रमत्तसंयत जीवको उक्त शरीरकी अपेक्षा अपर्याप्तक कहा जाता है I
इस प्रकार पर्याप्तियों और अपर्याप्तियोंमें योगोंके सत्त्व और असत्त्वका कथन करके अब चार गति संबन्धी पर्याप्ति और अपर्याप्तियोंमें गुणस्थानोंके सत्त्व और असत्त्वके प्रतिपादनार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं
इया मिच्छा
असंजदसम्माइट्ठिट्ठाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जन्त्ता||७९॥ नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कदाचित् पर्याप्तक होते हैं और कदाचित् अपर्याप्तक भी होते हैं ॥ ७९ ॥
अब उन नारक संबंधी शेष दो गुणस्थानोंके स्थानका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र
कहते हैं
सासणसम्माइट्टि - सम्मामिच्छाइट्ठिट्ठाणे नियमा पज्जत्ता || ८० ||
नारकी जीव सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नियमसे पर्याप्तक ही होते हैं ॥ ८० ॥
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