________________
१, १, ४७ ]
संतपरूवणाए जोगमग्गणा
[ २१
त्रस नामकर्मके उदयसे जिन्होंने त्रस पर्यायको प्राप्त कर लिया है वे त्रस जीव कहलाते हैं। उनमें कितने ही जीव दो इन्द्रियों, कितने ही तीन इन्द्रियों, कितने ही चार इन्द्रियों और कितने ही पांचों इन्द्रियोंसे युक्त होते हैं ।
पृथिवीकायिक आदि जीवोंके स्वरूपका कथन करके अब उनमें गुणस्थानोंका निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणप्फदिकाइया एकम्मि चेय मिच्छाट्ठिट्ठाणे ॥ ४३ ॥
पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीव एक मिथ्यादृष्टि नामक गुणस्थानमें ही होते हैं ॥ ४३॥
अब त्रस जीवोंके गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंतसकाइया बीइंदिय पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ॥ ४४ ॥
कायिक जीव द्वीन्द्रियसे लेकर अयोगिकेवली तक होते हैं ॥ ४४ ॥ अब बादर जीवोंके गुणस्थानोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंबादरकाइया बादरेइंदियप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ॥ ४५ ॥ बादरकायिक जीव एकेन्द्रिय जीवोंसे लेकर अयोगिकेवली पर्यंत होते हैं ॥ ४५ ॥ अब और स्थावर इन दोनों कायोंसे रहित जीवोंके अस्तित्वका प्रतिपादन करने के लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
ते परमकाइया चेदि ॥ ४६ ॥
स्थावर और स कायसे रहित अकायिक ( कायरहित ) जीव होते हैं ॥ ४६ ॥
जो स और स्थावररूप दो प्रकारकी कायसे रहित हो चुके हैं वे सिद्ध जीव बादर और सूक्ष्म शरीरके कारणभूत कर्मसे रहित हो जानेके कारण अकायिक कहलाते हैं ।
अब योगमार्गणाके द्वारा जीव द्रव्यका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंजोगाणुवादेण अत्थि मणजोगी वचिजोगी कायजोगी चेदि ॥ ४७ ॥
योगमार्गणा अनुवाद से मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव होते हैं ॥ ४७ ॥
भावमनकी उत्पत्ति के लिये जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग, वचनकी उत्पत्तिके लिये जो प्रयत्न होता है उसे वचनयोग और कायकी क्रियाकी उत्पत्तिके लिये जो प्रयत्न होता है उसे काययोग कहते हैं । जिसके मनोयोग होता है उसे मनोयोगी कहते हैं । इसी प्रकार वचनयोगी और काययोगीका भी अर्थ समझना चाहिए ।
अब योगरहित जीवोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org