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२०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, ४१ अग्निकायिक जीव दो प्रकारके हैं- बादर और सूक्ष्म । बादर अग्निकायिक जीव दो प्रकारके हैंपर्याप्त और अपर्याप्त । सूक्ष्म अग्निकायिक जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । वायुकायिक जीव दो प्रकारके हैं- बादर और सूक्ष्म । बादर वायुकायिक जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । सूक्ष्म वायुकायिक जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त ॥ ४०॥
बादर नामकर्मके उदयसे जिनका शरीर स्थूल होता है उन्हें बादर कहते हैं। सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे जिनका शरीर प्रतिघातरहित होता है उन्हें सूक्ष्म कहते हैं। बादर अर्थात् ऐसा स्थूल शरीर जो दूसरेको रोक सके और दूसरेसे स्वयं भी रुक सके । इसी प्रकार सूक्ष्मका अर्थ है दूसरेसे न रुक सकना और न दूसरेको रोक सकना । त्रस जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते। अब वनस्पतिकायिक जीवोंके भेदोंका प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
वणप्फइकाइया दुविहा पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा। पत्तेयसरीरा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता । साधारणसरीरा दुविहा बादरा सुहुमा। बादरा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता । सुहुमा दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि ॥ ४१ ॥
__वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं- प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर । प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं- बादर और सूक्ष्म । बादर जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । सूक्ष्म जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त ॥ ४१॥
जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथक् पृथक् शरीर होता है उन्हें प्रत्येकशरीर जीव कहते हैं । जैसे- खैर आदि वनस्पति । यद्यपि इस लक्षणके अनुसार पृथिवीकायादि शेष पांचों स्थावर जीव भी प्रत्येकशरीर ही सिद्ध होते हैं, फिर भी उनमें साधारणशरीर जैसा कोई निराकरणीय दूसरा भेद न होनेसे उनकी प्रत्येकशरीर संज्ञा नहीं की गई है ।
जिन जीवोंके साधारण अर्थात् पृथक् पृथकू शरीर न होकर समान रूपसे एक ही शरीर पाया जाता है उन्हें साधारणशरीर जीव कहते हैं। इन जीवोंके साधारण आहार और साधारण ही श्वासोच्छ्वासका ग्रहण होता है । इसी प्रकार इनमेंसे जहां एक मरता है वहां अनन्त जीवोंका मरण तथा जहां एक उत्पन्न होता है वहां अनन्त जीवोंकी उत्पत्ति भी होती है। ऐसे एक निगोदशरीरमें सिद्धराशि तथा समस्त अतीत कालसे भी अनन्तगुणे जीव समानरूपसे रहा करते हैं। नित्यनिगोदमें ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं जिन्होंने त्रस पर्याय अभी तक नहीं पाई है, और जो तीव्र कषायके उदयसे उत्पन्न हुए दुर्लेश्यारूप परिणामोंसे अत्यन्त मलिन रहते हैं, इसीलिये वे निगोद स्थानको कभी नहीं छोड़ते। अब त्रसकायिक जीवोंके भेदोंका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
तस काइया दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता ॥ ४२ ॥ त्रसकायिक जीव दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त ॥ ४२ ॥
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