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२४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ५४ उत्तर- यह कोई एकान्त नहीं है कि संपूर्ण वचन मनसे ही उत्पन्न हों। कारण कि यदि संपूर्ण वचनोंकी उत्पत्ति मनसे ही मानी जाय तो ऐसी अवस्थामें मनरहित केवलियोंके वचनोंका अभाव प्राप्त हो जायगा। इसीलिये द्वीन्द्रियसे लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवोंके मनके न रहनेपर भी वचन होता है । यदि कहा जाय कि विकलेन्द्रिय जीवोंके मनके विना चूंकि ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इसलिये ज्ञानके विना उनके वचनकी भी प्रवृत्ति संभव नहीं है; सो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि मनसे ही ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, यह कोई एकान्त नहीं है । यदि मनसे ही ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, ऐसा एकान्त मान लिया जाता है तो फिर उस अवस्थामें संपूर्ण इन्द्रियोंसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। मन इन्द्रियोंका सहायक भी नहीं है, क्योंकि, प्रयत्न और आत्माके सहकारकी अपेक्षा रखनेवाली इन्द्रियोंसे इन्द्रियज्ञानकी उत्पत्ति पाई जाती है।
अब सत्यवचनयोगका गुणस्थानोंमें निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैंसच्चवचिजोगो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि ति ॥ ५४॥ सत्यवचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर सजोगिकेवली गुणस्थान तक होता है ।। ५४ ॥
कारण यह कि मिथ्यादृष्टि आदि तेरह गुणस्थानोमें दस प्रकारके सत्यवचनोंके पाये जानेमें कोई विरोध नहीं है।
शेष वचनयोगोंका गुणस्थानोंमें निरूपण करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं--
मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो सण्णिमिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव खीणकसायवीयराग-छदुमत्था त्ति ॥ ५५ ॥
___ मृषावचनयोग और सत्यमृषावचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय-वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक पाये जाते हैं ॥ ५५॥
प्रश्न- जिनकी कषायें क्षीण हो गई हैं ऐसे क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थोंके असत्यवचन कैसे संभव है ?
उत्तर- असत्यवचनका कारण अज्ञान है सो वह बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है । अत एव उनके असत्यवचनयोगके रहनेमें कोई बाधा नहीं है ।
अब काययोगकी संख्याका प्रतिपादन करनेके लिये उत्तरसूत्र कहते हैं
कायजोगो सत्तविहो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो वेउवियकायजोगो वेउब्धियमिस्सकायजोगो आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो कम्मइयकायजोगो चेदि ॥ ५६ ॥
काययोग सात प्रकारका है- औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियककाययोग, वैक्रियकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कामणकाययोग ॥५६॥
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